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पैसों का व्यवहार
पैठे। आज जहाँ जहाँ लक्ष्मी का प्रवेश होता है वहाँ क्लेश का वातावरण छा जाता है। एक रोटी और सब्जी भले हो मगर बत्तीस प्रकार के व्यंजन काम के नहीं। इस काल में यदि सच्ची लक्ष्मी आये तब एक ही रुपया, अहोहो....कितना सुख देकर जाये ! पुण्यानुबंधी पुण्य तो घर में सभी को सुख-शांति देकर जाये, घर में सभी को धर्म के ही विचार रहा करें।
मुंबई में एक उच्च संस्कारी परिवार की बहन से मैंने पूछा, 'घर में क्लेश तो नहीं होता न?' तब वह बहन कहती है, 'रोजाना सवेरे क्लेश के नाश्ते होते हैं!' मैंने कहा, 'तब तो तुम्हारे नाश्ते के पैसे बच गये, नहीं ?' बहन ने कहा, 'नहीं, फिर भी निकालने पड़े, पाव को मक्खन लगाते जाना!' तब क्लेश भी होता रहे और नाश्ता भी चलता रहे, अरे, किस प्रकार के आदमी हो? !
सदैव, यदि लक्ष्मी निर्मल होगी तो सब अच्छा रहे, मन चंगा रहे। यह लक्ष्मी अनिष्ट आई है उस से क्लेश होता है। हमने बचपन में तय किया था कि हो सके वहाँ तक खोटी लक्ष्मी पैठने ही नहीं देना। इसलिए आज छियासठ साल होने पर भी खोटी लक्ष्मी पैठने ही नहीं दी, इसके कारण तो घर में किसी दिन क्लेश उत्पन्न हुआ ही नहीं। घर में तय किया था कि इतने पैसों से घर चलाना । धंधे में लाखों की कमाई हो, मगर यह 'पटेल' सर्विस करने जाये तो तनख्वाह क्या मिलती ? ज्यादा से ज्यादा छः सौ - सात सौ रुपये मिले। धंधा, यह तो पुण्याई का खेल है। इसलिए नौकरी में मिले उतने पैसे ही घर में खर्च कर सकते हैं, शेष तो धंधे में ही रहने देने चाहिए। इन्कमटैक्सवाले का कागज आने पर हम कहे कि, वह ( 45 ) रकम थी वह भर दो। कब कौन सा अटैक आयेगा (मुसीबत) उसका कोई ठिकाना नहीं। और यदि वह पैसे खर्च खायें और इन्कमटैक्सवाले का अटैक आने पर हमें यहाँ वह दूसरा (हार्ट) 'अटैक' आ जाये। सब जगह अटैक घुस गये हैं न? इसे जीवन कैसे कहा जाये? आपको क्या लगता है। भूल महसूस होती है कि नहीं? इसलिए हमें भूल सुधारनी है।
लक्ष्मी सहज भाव से प्राप्त होती हो तो होने देना। लेकिन उस पर
पैसों का व्यवहार
आधार नहीं रखना। आधार रखकर 'चैन' से बैठने पर कब आधार खिसक जाये, यह कह नहीं सकते। इसलिए सम्हलकर चलिये कि जिससे अशाता वेदनीय में चलायमान नहीं हो जायें।
प्रश्नकर्ता: सुगन्धीवाली लक्ष्मी कैसी होती है ?
दादाश्री : वह लक्ष्मी हमें जरा-सी भी चिंता नहीं कराती। घर में सिर्फ सौ रुपये होने पर भी हमें जरा-सी भी चिंता नहीं करवाये। कोई कहेगा कि कल से शक्कर का कंट्रोल (अंकुश) आनेवाला है, फिर भी मन में चिंता नहीं होगी। चिंता नहीं, हाय-हाय नहीं वर्तन कैसा खुशबूदार, वाणी कैसी खुशबूदार, और उसे पैसे कमाने का विचार ही नहीं आता ऐसा पुण्यानुबंधी पुण्य होगा। पुण्यानुबंधी पुण्यवाली लक्ष्मी होगी उसे पैसे पैदा करने के विचार ही नहीं आयेंगे। यह तो सब पापानुबंधी पुण्य की लक्ष्मी है। इसे तो लक्ष्मी ही नहीं कह सकते! निरे पाप के ही विचार आते रहें, ‘कैसे इकट्ठा किया जाये, कैसे इकट्ठा किया जाये' यही पाप है। कहते हैं कि पहले के जमाने में सेठों के यहाँ ऐसी पुण्यानुबंधी पुण्य की लक्ष्मी हुआ करती थी। वह लक्ष्मी जमा होती थी, जमा करनी नहीं पड़ती थी। जब कि इन लोगों को तो जमा करनी पड़ती है। वह लक्ष्मी तो सहज भाव से आया करे। खुद ऐसी प्रार्थना करे कि, 'हे प्रभु! यह राजलक्ष्मी मुझे स्वप्न में भी नहीं चाहिए' फिर भी वह आती ही रहे। वे क्या कहें कि आत्मलक्ष्मी हो मगर यह राजलक्ष्मी हमें स्वप्न में भी नहीं हो। फिर भी वह आती रहे, वह पुण्यानुबंधी पुण्य ।
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हमें भी संसार में अच्छा नहीं लगता था। मेरा वृतांत ही कहता हूँ न! मुझे स्वयं किसी चीज़ में रस ही नहीं आता था। पैसा दें तब भी बोझ - सा लगता। मेरे अपने रुपये दें तब भी भीतर बोझ महसूस होता था । ले जाने पर भी बोझ लगे, लाने पर भी बोझ लगे। हर बात में बोझ लगे, यह ज्ञान होने के पहले।
प्रश्नकर्ता: हमारे विचार ऐसे हैं और धंधे में भी इतने मशगूल हैं कि लक्ष्मी का मोह जाता ही नहीं, उसमें डूबे हैं ।