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पैसों का व्यवहार
कहलाये | रंगाया कब कहलाये कि तन्मयाकार हो जाये पूरा घर-बार सब भूल जायें। आप नहीं समझे? यह लोग नहीं कहते कि दादाजी का रंग लगा? उसको दादाजी का रंग नहीं लगता, चाहे कितनी ही बार उसे रंग में डूबो - डूबो करें तब भी ।
मन में पैसे देने का भाव हो तब भी दे नहीं पाये वह लोभ की
ग्रंथि ।
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प्रश्नकर्ता : संयोग ही ऐसे हो कि देने का भाव होने पर भी नहीं दे सकते।
दादाश्री : वह अलग बात है। वह तो हमें ऐसा लगे कि संयोग ऐसे हैं, पर ऐसा होता नहीं है। देने का निश्चय करने पर दे सके ऐसा है । प्रश्नकर्ता: हाँ, मगर होने पर भी नहीं देते।
दादाश्री : होने पर भी नहीं दे सकते, दे ही नहीं सकते न, वह बंध तो टूटे नहीं। वह बंध टूट जाये तो मोक्ष हो जाये न। ! वह आसान वस्तु नहीं है।
प्रश्नकर्ता: वैसे तो अपनी-अपनी मर्यादा में देने की अमुक शक्ति तो होती ही है न?
दादाश्री : नहीं, वह लोभ के कारण नहीं होती। लोभी के पास लाख रुपये होने पर भी, चार आने देना भी मुश्किल हो जाये। बुखार चढ़ जाये। अरे, पुस्तक में पढ़े कि ज्ञानी पुरुष की तन, मन, धन से सेवा करनी चाहिए। वह पढ़ते समय बुखार चढ़ जाये कि ऐसा क्यों कर लिखा है।
लोभ टूटने के दो रास्ते । एक, ज्ञानी पुरुष तुड़ा दें, अपने वचन बल से। और दूसरा, जबरदस्त घाटा आने पर लोभ छूट जाये कि मुझे कुछ करना नहीं है, अब जो बचे हैं उनसे निबाह लेना है। मुझे कई लोगों से कहना पड़ता है कि घाटा आने पर लोभ छूटेगा, वरना लोभ छूटनेवाला नहीं। हमारे कहने पर भी नहीं छूटे, ऐसी दोहरी ग्रंथि पड़ गई होती है।
पैसों का व्यवहार
लोभी की ग्रंथि घाटे से खुलेगी। अथवा यदि ज्ञानी पुरुष की आज्ञा मिल जाये तो उत्तम । फिर आज्ञा पालन को तैयार नहीं हो उसे कौन सुधारेगा?
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सत्संग में रहने पर ही ग्रंथियाँ पिघलेगी, सत्संग का परिचय ना हो वहाँ तक ग्रंथियों का पता नहीं चलता। सत्संग में रहने से वह निर्मल होती नज़र आये। 'हम' (आत्मा) दूर रहें न! दूर रहकर सब देखें आराम से इससे हमारे (चन्दूभाई के सारे दोष नज़र आये। 'हम' अलग नहीं रहें तब वह ग्रंथि में रहकर देखते हैं, इसलिए दोष नहीं दिखते। तभी कृपालुदेव ने कहा, 'दिखे नहीं निज दोष तो तैरिए कौन उपाय ! '
हमारा जीवन किसी के लाभ के लिए व्यतीत होना चाहिए। यह मोमबत्ती जलती है वह क्या खुद के प्रकाश के लिए जलती है? औरों के लिए, परार्थ जलती है न? औरों के फ़ायदे के लिए जलती है न? इसी प्रकार ये मनुष्य औरों के फ़ायदे (कल्याण) के लिए जीयें तो खुद का फ़ायदा (कल्याण) तो उसमें निहित ही है। मरना तो है ही एक दिन । इसलिए आँरो का फ़ायदा करने जायेंगे तो आपका फायदा उसमें निहित ही है। और औरों को कष्ट पहुँचाने चायें तो खुद को कष्ट है ही अंदर । खुद जो चाहें सो करें।
आत्मा प्राप्त करने हेतु जो कुछ किया जाये वह मेन प्रोडक्शन है, और उसके कारण बाय-प्रोडक्शन प्राप्त होता है, जिससे सारी संसारी जरूरतें प्राप्त होती है। मैं अपना एक ही तरह का प्रोडक्शन रखता हूँ, 'संसार सारा परम शान्ति पायें और कुछ मोक्ष पायें।' मेरा यह प्रोडक्शन और उसका बाय-प्रोडक्शन मुझे मिलता ही रहता है। हमें अलग तरह के चाय - पानी आतें हैं उसकी क्या वजह? आपकी तुलना में मेरा प्रोडक्शन उच्च कोटि का है। वैसे ही आपका प्रोडक्शन उच्च कोटी का होगा तो बाय-प्रोडक्शन भी उच्च कोटी का आयेगा !
हमें केवल हेतु बदलना है, और कुछ नहीं करना है। पंप के इंजन का एक पट्टा इस ओर देने पर पानी निकलेगा और उस ओर पट्टा दिया