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पैसों का व्यवहार
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पैसों का व्यवहार
है। पर उस कुदरत के कानून में तो ब्याज सहित मिलती है। इसलिए कभी कोई हमारे तीन सौ रुपये नहीं लौटाता हो तो हमें उनसे उगाही करनी चाहिए। वापस लेने का कारण क्या है? यह भाई रकम ही नहीं लौटाता तब कुदरत का ब्याज तो कितना भारी होता है? सौ-दौ सौ साल में तो रकम कितनी भारी हो जायेगी? इसलिए उगाही करके हमे उनसे वापस ले लेने चाहिए, जिससे बेचारे को उतना भारी जोखिम उठाना नहीं पड़े। पर वह नहीं लौटाए और जोखिम मोल ले उसके जिम्मेवार हम नहीं है।
प्रश्नकर्ता : कुदरत के ब्याज की दर क्या है?
दादाश्री : नेचरल इन्टरेस्ट इज् वन परसेन्ट ऐन्यूअली। अर्थात् सौ रुपये पर एक रुपया ! अगर वह तीन सौ रुपये नहीं लौटाता तो हर्ज नहीं। हम कहें, हम दोनों दोस्त ! हम साथ में पत्ते खेलें। क्योंकि हमारी तो कोई रकम जानेवाली नहीं है न! यह नेचर (कुदरत) इतनी करेक्ट (सही) है कि यदि आपका एक बाल ही चुराया होगा, तो वह भी जानेवाला नहीं है। नेचर बिलकुल करेक्ट है। परमाणु से लेकर परमाणु तक करेक्ट है। इसलिए वकील करने जैसा संसार ही नहीं है। मुझे चोर मिलेगा, लुटेरा मिलेगा ऐसा भय भी रखने जैसा नहीं है। यह तो पेपर में आये कि आज फलाँ को गाडी से उतारकर गहने लूट लिए, फलाँ को मोटर में मारकर पैसे ले लिए। तो अब सोना पहनना कि नहीं पहनना?' डोन्ट वरी! (चिंता छोडो) करोड रुपयों के रत्न पहनकर फिरोगे तब भी आपको कोई छु नहीं सकता। ऐसा यह संसार है। और वह बिलकुल करेक्ट है। यदि आपकी जिम्मेवारी होगी तभी आपको छूएगा। इसलिए हम कहते हैं कि आपका ऊपरी (मालिक) कोई भी नहीं है। 'डोन्ट वरी!' (चिंता छोडिए) निर्भय हो जाइये।
धंधे में बिना हक़ का (हराम का) नहीं पैठना चाहिए । और जिस दिन बिना हक़ का आ जायेगा, उस दिन से धंधे में बरकत नहीं रहेगी। भगवान हाथ डालते ही नहीं। धंधे में तो आपकी कुशलता और आपकी
नीतिमत्ता दो ही काम आयेंगे। अनीति से साल-दो साल ठीक मिलेगा पर फिर नुकसान होगा। गलत होने पर अगर पछतावा करोगे तो भी छट जाओगे। व्यवहार का सारा सार नीति ही है। पैसे कम होंगे परन्त नीति होगी तो भी आपको शांति रहेगी और बिना नीति के, पैसे ज्यादा होने पर भी अशांति रहेगी। धर्म की नींव ही नैतिकता है।
इसका तात्पर्य यह है कि पालन कर सकें तो संपूर्ण नीति का पालन कीजिए और ऐसा पालन नहीं हो सकें तो निश्चय कीजिए कि दिन में तीन बार तो मुझे नीतिपालन करना ही है, या फिर नियम में रहकर अनीति करें तो वह भी नीति है। जो आदमी नियम में रहकर अनीति करता है उसे मैं नीति कहता हैं। भगवान के प्रतिनिधि के तौर पर, वीतरागों के प्रतिनिधि के तौर पर मैं कहता हूँ कि अनीति भी नियम में रहकर करें, वह नियम ही तुम्हें मोक्ष में ले जायेगा। अनीति करें कि नीति करें, मेरे लिए इसका महत्व नहीं है, पर नियम में रहकर करें। नियम बनाइये कि मुझे इतनी मात्रा में ही अनीति करनी है, इससे ज्यादा नहीं। प्रतिदिन दस रुपये दुकान पर अधिक लेने है, उससे अधिक पाँच सौ रुपये आने पर भी मुझे नहीं लेने है।
यह हमारा गूढ़ वाक्य है। यह वाक्य यदि समझ में आ जाये तो कल्याण ही हो जाये। भगवान भी खुश हो जाये कि परायी चरागाह (चरने का स्थान) में चरना है फिर भी अपनी आवश्कता जितना ही चरता है! वरना परायी चरागाह में चरना हो वहाँ फिर प्रमाण होता ही नहीं न?!
आपकी समझ में आता है न? कि अनीति का भी नियम रखें। मैं क्या कहता हूँ कि, 'तुझे रिश्वत नहीं लेनी और तझे पाँच सौ की कमी है, तब क्लेश कहाँ तक करेगा?' लोगों से-मित्रों से रुपये उधार लेते हैं, इससे ज्यादा जोखिम उठाते हैं। इसलिए मैं उन्हें समझाता हूँ कि 'भाई तू अनीति कर, पर नियम से कर।' अब नियम से अनीति करनेवाला नीतिमान से श्रेष्ठ है। क्योंकि नीतिमान के मन में ऐसा रोग पैठेगा कि 'मैं कुछ हूँ'। जब कि नियम से अनीति करनेवाले के मन को ऐसा रोग नहीं लगेगा?