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निजदोष दर्शन से... निर्दोष!
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जागृति के लिए सत्संग और पुरुषार्थ चाहिए। सत्संग में रहने के लिए पहले आज्ञा में रहना चाहिए।
अँधेरे की भूलें....
अरे, मन में दी गई गाली या अँधेरे में किए गए कृत्य भयंकर हैं! वह समझता है कि, 'मुझे कौन देखनेवाला है और कौन इसे जाननेवाला है ? ' अरे, यह नहीं है अंधेरनगरी। यह तो भयंकर गुनाह है! इन सभी को अँधेरे की भूलें ही परेशान करती है।
'मैं जानता हूँ', वह अँधेरे की भूल तो बड़ी भारी भूल और फिर 'अब कोई हर्ज नहीं है', वह तो मार ही डालता है। यह तो ज्ञानी पुरुष के अलावा कोई बोल ही नहीं सकता कि 'मुझमें एक भी भूल नहीं रही।' हर एक भूल को देखकर मिटाना है। हम 'शुद्धात्मा' और बाहर के बारे में 'मैं कुछ जानता नहीं' ऐसा रखना, इससे कोई परेशानी नहीं आएगी। पर, 'मैं जानता हूँ' ऐसा रोग तो पैठना ही नहीं चाहिए। हम तो 'शुद्धात्मा' । शुद्धात्मा में एक भी दोष नहीं होता, पर चंदूभाई में जो-जो दोष दिखें, वैसेवैसे उनका निकाल करना । अँधेरे की भूलें और अँधेरे में दबी हुई भूलें नहीं दिखतीं। जैसे-जैसे जागृति बढ़ती है वैसे-वैसे अधिक और अधिक भूलें दिखती हैं। स्थूल भूलें भी मिट जाएँ तो आँखों की लाइट बदल जाती है! अँधेरे में भरी गई भूलें, अँधेरे में कहाँ से दिखेंगी? भूलें जैसे-जैसे निकलती जाती हैं, वैसे-वैसे वाणी भी ऐसी निकलती जाती है कि कोई दो घड़ी सुनता रहे!
दादा 'डॉक्टर' दोषों के
भूलें तो बहुत ही हैं, वह यदि जानें तो भूलें दिखने लगेंगी और फिर भूलें कम होती जाएँगी। हम सबके दोष थोड़े ही देखते रहते हैं? ऐसी हमें फुरसत भी नहीं होती। वह तो बहुत पुण्य इकट्ठा हो, तब आपके दोष दिखलाते हैं। इन दोषों से भीतर भारी रोग पैदा होता है। पुण्य जागे, तब हम सिद्धिबल से उसका ऑपरेशन करके निकाल देते हैं। ये डॉक्टर करते हैं, उस ऑपरेशन से तो लाख गुना मेहनत हमारे ऑपरेशन में होती है !
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निजदोष दर्शन से... निर्दोष!
दोष निकालने का कॉलेज
हँसते-खेलते दोष निकालने का कॉलेज ही यह है ! नहीं तो दोष तो बिना राग-द्वेष के जाते नहीं। हँसते-खेलते चलता है यह कॉलेज, वह भी एक आश्चर्य ही है न! अक्रम का आश्चर्य है न!
प्रश्नकर्ता: आपके शब्द ऐसे निकलते हैं कि दोष निकलता जाता है वहाँ से । यहाँ से शब्द ऐसे निकलते हैं कि दोष वहाँ झड़ जाता है।
दादाश्री झड़ जाता है न? ठीक है।
अब आपको दोष दिखता है यह आपको कैसे पता चले? तब कहें, चंदूभाई गुस्सा करे, वह आपको पसंद नहीं आता। वह समझ में आया कि इस चंदूभाई में यह दोष था। पकड़ा गया दोष। वे दोष आपने देखे । चंदूभाई
में जो दोष थे वे आपने देखे । 'देखा नहीं निजदोष तो तरिये कौन उपाय ?" निजदोष देखने की दृष्टि उत्पन्न हो गई यानी परमात्मा होनी की तैयारी हुई, कहते हैं। और निजदोष तो किसीको भी नहीं दिखते। अहंकार है तब तक एक-एक अणु में दोष है। भ्रांति जाए तब पता चलता है कि ओहोहो ! चंदूभाई क्रोध करते हैं। वह हमें पसंद नहीं आता। चंदूभाई ऐसा करते हैं, वह चंदूभाई का दोष पकड़ में आया। पकड़ में आते हैं या नहीं पकड़ में आते दोष सारे?
प्रश्नकर्ता: पकड़ में आते हैं। पर दादा, आपका वाक्य अच्छा लगा था । दोष दिखा और गया। दिख गया इसलिए गया ।
दादाश्री : दोष दिखा इसलिए गया। इसीलिए तो शास्त्रकारों ने कहा, महावीर भगवान ने कहा था कि तू दोष को देख ले। दोष में एकाग्रता होने से, उतना देखा नहीं और अँधा बना रहा, इसलिए दोष तुझसे चिपटा । अब उस दोष को तू देखेगा तो चला जाएगा। अब वह दावा क्या करता है? वह पुद्गल हमसे कहता है कि आप तो शुद्धात्मा हो गए, मेरा क्या? तब हम कहें, 'अब मेरा और तेरा क्या लेना-देना?' तब कहे, 'नहीं, ऐसा नहीं चलेगा। आपने मुझे बिगाड़ा था। यह जैसा था, वैसा कर दो। नहीं तो आपका