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निजदोष दर्शन से... निर्दोष! सारे संसार को तारें, उनमें भी दोष ढूंढ निकाले?! पर ये अपरिचित लोग, इनमें उतनी समझ नहीं है। इसलिए हम बहुत टच में नहीं रखते। एक दो घंटे रखते हैं। सिर्फ नीरुबहन को ही, उन्हें दोष नहीं दिखे, कितने ही वर्षों से साथ रहती हैं, पर एक अक्षर भर दोष नहीं दिखा! एक सेकन्ड भी दोष नहीं दिखा, वे ये नीरुबहन ! वह आश्चर्य कहलाए न! तुझे कभी दिखता होगा, नहीं? कभी भी नहीं?
प्रश्नकर्ता : दादा, आपका तो यह विज्ञान, इन बातों की तो अद्भुतता ही है! यहाँ दोष देखने का तो कोई कारण ही नहीं है। संपूर्ण ज्ञानदशा बरतती हो जिन्हें !!
दादाश्री : ऐसा है न कि आपके जैन होते हैं न, वे अच्छे। इतनासा बच्चा हो, वह भी कहेगा कि, 'दादा कहते हैं, वह सच है, और कुछ नहीं!' ऐसा मानते हैं सभी। और यह दूसरा सब कच्चा माल।
प्रश्नकर्ता : आप निरंतर एकदम सक्ष्मतम में उपयोग में बरतते हैं, वहाँ दोष रहता ही नहीं न कोई? फिर आपके दोष कैसे देखे जाएँ?
दादाश्री : ऐसी समझ नहीं है न? कुछ भी समझ नहीं है।
प्रश्नकर्ता : केवलज्ञान स्वरूप बरतते हों, फिर बाहर का चाहे कैसा भी हो, श्रीमद् राजचंद्रजी ने यहाँ तक कहा है कि ज्ञानी को सन्निपात हो, तब भी उनके दोष नहीं देखने चाहिए।
दादाश्री : पर वह समझ होनी चाहिए न ! समझ कोई आसान चीज़
निजदोष दर्शन से... निर्दोष! है न बेचारे को! किसी भी तरह की भी समझ नहीं है न! यह थोड़ाबहुत ज्ञान दिया हो न, तो जागृति रहती है इन लोगों को। चोखा हो तो। दूसरी कुछ समझ नहीं है कि मैं क्या कर रहा हूँ! बुद्धि फँसाती है। उसका खुद को पता नहीं चलता न! बुद्धि सबको फँसाती है। नहीं देखने का हो, वह भी दिखाती है।
इस बारे में नीरुबहन को देखा मैंने। एक दिन भी उल्टा विचार ही नहीं आता। हमारे हाथों से किसीको मार रहे हों न, तब भी विचार नहीं। उसका कोई हित का कारण देखा होगा, इसलिए मारते होंगे!
प्रश्नकर्ता : और ऐसा ही होता है। दादाश्री : अब वहाँ इनकी बुद्धि कैसे पहुँचे?
प्रश्नकर्ता : सारा, केवल करुणा और कल्याण के अलावा दूसरा कुछ यहाँ है ही नहीं।
दादाश्री : धीरे-धीरे उसका भी ठिकाने पर आ जाएगा।
प्रश्नकर्ता : इस ज्ञान में तो जगत् में भी किसीको दोषित नहीं देखना है, तो ज्ञानी पुरुष के तो दोष देखे जाते होंगे? जगत् निर्दोष देखना है। खुद की ही भूल से दोष दिखते हैं।
दादाश्री : हाँ, लेकिन ऐसा भान रहता नहीं न मनुष्य को ! भान रहे, तो ऐसा करे ही नहीं न बेचारा? जोखिम उठाए ही नहीं न यह तो? बहुत बड़ा जोखिम कहलाता है न! इसलिए तो उस आदमी को बोला था कि आठ बजे से पहले आपको आना नहीं है। हम चाय पी रहे हों, डेढ़ कप पीते हों या दो कप पीते हों! तब उसकी बुद्धि बताएगी कि इतनी सारी, दो कप पीने की क्या ज़रूरत है? एक पी होती तो क्या बुरा था?
प्रश्नकर्ता : देखने जैसा तो अंदर का ही है कि चाय पीते समय आप अंदर कैसी वीतरागता में रहते हैं!
दादाश्री : ऐसी देखने की शक्ति कहाँ से लाएँ? वह तो अपने ज्ञान
प्रश्नकर्ता : उल्टे यह पूछने में, वह बातचीत करने में विनय चूक जाते हैं, वे सब भूलें हमारी हमें धोनी होती हैं।
दादाश्री : जहाँ नहीं देखना है वहाँ वह, देख लेता है, यह अजूबा ही है न! दूसरी जगह पर दोष देखे न, तो मैं मिटा दूँ। और यहाँ दोष देखे तो कौन मिटा दे उसके? कोई मिटानेवाला ही रहा नहीं न! इसलिए मैं सावधान कर दूं कि अरे, देख, यहाँ सावधान रहना। भीतर समझ नहीं