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निजदोष दर्शन से... निर्दोष! निकाल करके नयी गाँठें फिर से नहीं डालोगे तो फिर वे गाँठें नहीं आएंगी और समाधान हो जाएगा।
इसलिए, हमें भूल तो मिटानी पड़ेगी न! प्रश्नकर्ता : पर भूलें क्या-क्या हैं, वे सब दिखाई देनी चाहिए न!
दादाश्री : वह तो धीरे-धीरे दिखती जाएँगी। आपको ये बातें करता हूँ वैसे-वैसे दिखेंगी। आपकी भूल देखने की दृष्टि उत्पन्न होगी। आपको इच्छा होगी कि मुझे अब भूलें खोज निकालनी हैं, तो मिले बगैर रहेंगी नहीं!
निजदोष दर्शन से... निर्दोष! डिस्चार्ज मोह तो भगवान महावीर को भी था। उनके सामर्थ्य के अनुसार, क्योंकि वे खपाकर गए होते हैं और हम खपाए बिना के हैं। वे दस के कर्जदार थे और हम लाख के कर्जदार हैं। उन्होंने कर्ज़ का निकाल कर दिया था और आप भी निकाल कर दोगे। बस कर्ज का निकाल ही करने बैठे हैं, वहाँ हम समभाव से निकाल करते हैं न? हाँ, निकाल ही कर देना है।
सुटेवें और कुटेवें दोनों ही भाँति है। हम भ्रांति से बाहर निकले हैं अब। जो माल अपना नहीं है, उसे संग्रह क्यों करें?
हमें दोषों को देखना है। दोष कितने दिखते हैं, वह जानना है हमें। दोष को दोष देखो और गुण को गुण देखो। यानी शुभ को गुण कहा और अशुभ को दोष कहा। और वह आत्मभाषा में नहीं है। आत्मभाषा में दोष या गुण कुछ है ही नहीं। यह लोकभाषा की बात है, भ्रांतभाषा की बात है। आत्मभाषा में तो दोष नाम ही नहीं है कोई।
महावीर भगवान को कोई दोषित दिखता ही नहीं था। जेबकतरा भी दोषित नहीं दिखता था। कीलें ठोकी, उसका भी दोष नहीं दिखा था। उलटे उस पर करुणा आई कि इसका क्या होगा बेचारे का? जिम्मेवारी तो आई न, खुद का स्वरूप जानता नहीं। यदि स्वरूप जानता होता और मारा होता तो भगवान को उस पर करुणा नहीं आती कि वह तो ज्ञानी है। पर स्वरूप जानता नहीं है, इसलिए खुद कर्ता हुआ और स्वरूप यदि जानता होता तो वह अकर्ता था, इसलिए हर्ज नहीं था। इसलिए बात संक्षिप्त में समझ लेनी
अब जो आपके उदय हैं न, उन उदयों में जो दोष हैं, वे रिजर्वोयर (सरोवर) का माल है। यानी नयी आवक नहीं है उसमें, और जावक चालू है। इसलिए पहले जोरों से निकलेंगे, दो-पाँच सालों के बाद खाली हो जाएँगे। फिर बुलाओ, तब भी मना करेंगे, और कुछ सालों के बाद तो इसकी कुछ और ही दशा आएगी।
और वह हमने सेफसाइड कर दी है। आपको इतना लक्ष्य में रहना चाहिए कि सेफसाइड किया हुआ याद नहीं आना चाहिए। सुटेवों और कुटेवों दोनों से सेफसाइड नहीं की है हमने?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : फिर कहता है, 'दादा, मुझे ऐसा क्यों होता है? आज गुस्सा हो गया था।' अरे, गुस्सा हो गया, उसे देख न! तूने जाना है न? पहले जानते नहीं थे, पहले तो 'मैंने ही किया' ऐसा कहते थे। वह अब अलग पड़ा न? प्रश्नकर्ता : हाँ।
स्वरूप प्राप्ति के बाद.... दादाश्री : यह साईस है। साइंस यानी साइंस। पच्चीस प्रकार के मोह, चार्जमोह मैंने पूर्णतया बंद कर दिए हैं। और डिस्चार्ज मोह तो रहेगा ही,
लोंगकट (लम्बा रास्ता) है ही नहीं, यह शॉर्टकट (छोटा रास्ता) वस्तु है। आपको आत्मजागृति आ गई, शुरूआत हो गई, यह बहुत बड़े से बड़ा काम हो गया। एक क्षणभर 'आत्मा हूँ' ऐसा लक्ष्य नहीं बैठता किसीको, तो लक्ष्य बैठे वह तो सब से बड़ी बात हुई। उस दिन पाप भी धुल जाते हैं। इससे आपको वह लक्ष्य में रहा करता है निरंतर, चूकते नहीं।
अब कर्म का उदय ज़रा भारी हो तो वह आपको बेचैन करता है जरा, सफोकेशन करता है। उस घड़ी आपको बाधक नहीं होता है। आपका