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निजदोष दर्शन से... निर्दोष! केवलज्ञान सत्ता में होओगे। पर अंश केवलज्ञान होता है, सर्वाश नहीं। अंदर खराब विचार आएँ, उन्हें देखना, अच्छे विचार आएँ उन्हें देखना। अच्छे पर राग नहीं और खराब पर द्वेष नहीं। अच्छा-बुरा देखने की हमें ज़रूरत नहीं है। क्योंकि सत्ता ही मूल अपने काबू में नहीं है। इसलिए ज्ञानी क्या देखते हैं? सारे जगत् को निर्दोष देखते हैं। क्योंकि यह सब 'डिस्चार्ज' में है, उसमें उस बेचारे का क्या दोष? आपको कोई गाली दे, वह "डिस्चार्ज'। 'बॉस' आपको उलझन में डाले वह भी 'डिस्चार्ज' ही है। बॉस तो निमित्त है। किसीका जगत् में दोष नहीं है। जो दोष दिखते हैं, वह खुद की ही भूल है और वही 'ब्लंडर्स' हैं और उससे ही यह जगत् खड़ा है। दोष देखने से, उल्टा देखने से ही बैर बंधता है।
प्रमत्त भाव से दिखें परदोष... इस जगत् में कोई गुनहगार नहीं है। यदि गुनहगार दिखता है, वह हमारी खुद की कमी है। कोई गुनहगार दिखता है, वही आपका प्रमत्तभाव है। वास्तव में अप्रमत्तता होनी चाहिए, तब फिर कोई गुनहगार दिखेगा ही
निजदोष दर्शन से... निर्दोष! मानो 'अरंडी का तेल नहीं पीया हो!' ऐसे बनकर घूमते हैं। सभी अरंडी का तेल मोल लाते होंगे कोई? महँगे भाव का अरंडी का तेल रोज़ कहाँ से लाएँ? भीतर परिणति बदली कि अरंडी का तेल पीया हो वैसा मुँह हो जाता है। दोष खुद का और भूल निकालता है दूसरों की। इससे भीतरी परिणति बदल जाती है। 'खुद का दोष ढूँढो' ऐसा 'वीतराग' कह गए हैं, दूसरा कुछ भी कहकर नहीं गए हैं। 'त् अपने दोष को पहचान और मुक्त हो जा। बस, इतना ही मुक्तिधाम देगा तुझे।' इतना ही कार्य करने को कहा है भगवान ने।
ज़रूरत है भूल बिना के ज्ञान और समझ की
एक आचार्य महाराज ने कहा, 'मेरा मोक्ष कब होगा?' तब भगवान ने कहा, 'आपका ज्ञान और आपकी समझ भूल बिना के होंगे तब।' यह भूल है, उसी भूल से अटके हैं। आपका ज्ञान और आपकी समझ भूल बिना की होगी तब आपका मोक्ष होगा। तब क्या गलत कहते हैं?
नहीं।
प्रश्नकर्ता : ठीक है।
प्रश्नकर्ता : प्रमत्तभाव यानी क्या?
दादाश्री : वस्तु, वस्तु का स्वभाव चके वह प्रमत्त कहलाता है। वस्तु अपने मूल धर्म में रहे वह अप्रमत्त भाव।
वीतरागों ने कहा मुक्ति हेतु आप अपनी नासमझी के कारण इतना सारा उलझते हो। उन उलझनों के लिए आपको मुझसे पूछना चाहिए कि मुझे यहाँ उलझन है, तो इसमें क्या करना चाहिए? इसलिए पूछना। उसके लिए हम सत्संग रखते हैं।
एक कर्म कम हो जाए, तो उलझनें दिन पर दिन कम होती जाती हैं। एक दिन में एक ही कर्म यदि कम करे तो दूसरे दिन दो कम कर सकेगा। पर यह तो रोज़ उलझनें डालता ही रहता है और बढ़ाता ही रहता है! ये सभी लोग क्या अरंडी का तेल पीकर घूमते होंगे? उनके मुँह पर
दादाश्री : तब कोई कहे कि, 'साहब जप-तप करने चाहिए क्या?' वह तो तुझे जिस दिन पेट में अजीर्ण हुआ हो, तो उस दिन उपवास करना। जप-तप की हमारी शर्त नहीं है। तेरी समझ और ज्ञान भल बिना का कर, किसी भी रास्ते। क्या गलत कहते हैं भगवान? भूल है तब तक तो कोई कबूल ही नहीं करे न! अभी तो कितनी सारी भूलें हैं?! मैं चंदूलाल हूँ, इस औरत का पति हूँ, ऐसा कहता है वापस और इस बच्चे का बाप हूँ, कहता है। कितनी सारी भूलें? यह तो परंपरा है भूलों की। मूल में ही भूल। मूल जो रकमें है, उनमें एक अविनाशी है और एक विनाशी है।
और अविनाशी के साथ विनाशी को गुणा करने जाता है, तब तक तो वह रकम उड़ जाती है। वह विनाशी, पति नहीं तो बाप तो है, वह रखें तब तक तो वह उड़ जाती है यानी गुणा कभी होता नहीं, जवाब आता नहीं और दिन बदलता नहीं। शुक्रवार ही हमेशा रहता है। शुक्रवार जाता नहीं और शनिवार होता नहीं, एवरी डे फ्राइडे (सदा शुक्रवार)।