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समर्पण
त्रिमंत्र
निजदोष दर्शन बिन, बंधन भवोभव का; खुले दृष्टि स्वदोष दर्शन की, तरे भवसागर कितना। मैं 'चंदू' माना तब से, मूल भूल की हुई शुरूआत; 'मैं शुद्धात्मा' का भान होते, होने लगे भूलों का अंत। भगवान ऊपरी, कर्ता जग का, फिर लिपटीं अनंत भ्रांतियाँ; बजे रिकॉर्ड पर माने बोला, उससे चोट देतीं, वाणियाँ। भूलें लिपटी रही हैं किससे? किया उनका रक्षण सदा; भूलों को मिल जाती खुराक, कषायों का पेट भरा। जब तक रहेंगी निज भूलें, तब तक ही है भुगतना; दिखें स्वदोष जब खुद के, तब पूर्ण निष्पक्षपाती हुआ। देह-आत्मा के भेदांकन बिन, पक्ष रहे सदा खुद का; ज्ञानी के भेदांकन द्वारा, रेखांकन आंके स्व-पर का। फिर दोषों को देखते ही ठाँय, 'सेट' हुआ भीतर मशीनगन; दोष धोने की मास्टर की, दिखे तब से कर प्रतिक्रमण। भूल मिटाए वह भगवान, न रहा किसीका ऊपरीपन ज्ञानी का अद्भुत ज्ञान, प्रकटे निज परमात्मपन। शुद्धात्मा होकर देखे, अंत:करण का हरएक अणु; 'बावा' के दोष धुलें, सूक्ष्मत्व तक का शुद्धिकरण। निजदोष दर्शन दृष्टि का, 'दादावाणी' आज प्रमाण; निजदोष छेदन के लिए अर्पण, ग्रंथ जगत् के चरण।