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________________ कर्ता हो ही गया। प्रकृति भले ही लड़ाई-झगड़े करे, पर उसे कर्ता नहीं देखना चाहिए। क्योंकि वह नहीं करता है। 'व्यवस्थित' करता है! दोष करनेवाला अहंकार और दोष देखनेवाला भी अहंकार। दोष देखनेवाला एकांत रूप से अहंकारी होता ही है। सारा दिन माफ़ी माँगते रहना चाहिए। सारा दिन माफ़ी माँगने की आदत ही बना देनी। ज्ञानी की कृपा से ही काम होता है, कोई दौड़-धूप करनी नहीं है। कृपा कब मिलती है? ज्ञानी की आज्ञा में रहने से। आज्ञा में रहने से समाधि होती है। आत्मा भी वीतराग है और प्रकृति भी वीतराग है। पर प्रकृति के दोष निकालने पर उसका 'रिएक्शन' आता है। किसीका दोष दिखाई दे वह अपना ही दोष है। दादाजी का यह सत्संग, वहाँ मार पडे तब भी छोडना नहीं। सत्संग में मर जाना, पर बाहर कहीं जाने जैसा नहीं है, सत्संग में किसीके दोष देखने नहीं। नहीं तो 'वज्रलेपो भविष्यति!' इसलिए यहाँ तुरंत ही प्रतिक्रमण करके धो डालना, नहीं तो निकाचित कर्म हो जाता है ! ज्ञानी पुरुष के कभी भी दोष देखने ही नहीं चाहिए। ज्ञानी पुरुष के सामने बुद्धि का उपयोग करे, तो वह गिर जाता है, नर्क में जाता है। कोई विरला ही ज्ञानी के नजदीक रहकर उनका एक भी दोष नहीं देखे! वही ज्ञानी की सेवा में नज़दीक रह सकता है! दूसरों के दोष देखने से खुद के दोष देखने की शक्ति सैंध गई है। किसीकी भूल होती ही नहीं है, भूल माननी ही हो तो 'व्यवस्थित' की मानना और 'व्यवस्थित' यानी खुद का ही हिसाब खुद के हिस्से में आता है। खुद ने भूल की है उसका दंड कुदरती निमित्तों द्वारा खुद को मिलता है! प्रत्यक्ष की वीतरागता देखने से वीतराग हो सकते हैं! मोक्षार्थी की लाक्षणिकताएँ कौन-सी? सरलता! ओपन टु स्काइ! खुद के सारे ही दोष खुले कर देता है वह! दोष में एकाग्रता होने से दोष दिखा नहीं। अंधापन आया, इसलिए दोष चिपट गया। वह दोष देखने से जाता है। हम खुद शुद्धात्मा हो गए, अब पुद्गल को शुद्ध करना बाकी रहा। वह देखने से ही शुद्ध हो जाता है। अतिक्रमण जो करे, उसे प्रतिक्रमण करना है। शुद्धात्मा अतिक्रमण करता नहीं है, इसलिए प्रतिक्रमण करने का उसे रहता नहीं है। यह सिद्धांत लक्ष्य में रखना। दादाश्री कहते कि, 'हमारे प्रतिक्रमण, दोष होने से पहले ही शुरू हो जाते हैं, अपने आप! वह जागृति का फल है! आगे की जागृति तो दोषों को दोष की तरह भी देखता नहीं। वह 'ज्ञेय' और 'खुद' 'ज्ञाता'। ज्ञेय है तो ज्ञातापन है! किसीको न तो दोषित मानो न ही तो निर्दोष मानो, निर्दोष जानो! खुद की प्रकृति को देखना, चंदूभाई क्या कर रहे हैं, उसे देखना, वह शुद्ध उपयोग है। प्रकृति को क्यों देख नहीं पाते हैं? आवरण के कारण। वे आवरण किस तरह टूटें? ज्ञानी पुरुष 'विधियाँ' (चरणविधि) करवाते हैं, उससे आवरण टूटते हैं। ज्ञानी के भी सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष होते हैं, जो प्रतिक्रमण से शुद्ध करते हैं। ___ प्रकृति के गुण-दोष देखनेवाला कौन? प्रकृति को प्रकृति देखती है, वह देखनेवाला है प्रकृति का, बुद्धि और अहंकारवाला भाग! इसमें आत्मा निर्लेप होता है। आत्मा को अच्छा-बुरा होता ही नहीं है! प्रकृति के दोष दिखानेवाली ऊँची प्रकृति कहलाती है कि जो आत्मा प्राप्त करवानेवाली है। 18 ज्ञानी के प्रत्येक कर्म दिव्य कर्म होते हैं। बाह्य कर्म तो सभी के जैसे ही होते हैं पर उस समय उन्हें बरतती वीतरागता ही निहारने जैसी 17
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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