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मृत्यु समय, पहले और पश्चात्...
मृत्यु समय, पहले और पश्चात्...
में कोई मर जाए, उस समय अपने लोग रोते क्यों है?
दादाश्री : वे तो अपने-अपने स्वार्थ के लिए रोते हैं। बहुत नज़दीकी रिश्तेदार हों, तो वह सच में रोते हैं, पर दूसरे सभी जो सच में रोते हैं न, वे तो अपने रिश्तेदारों को याद करके रोते हैं। यह भी आश्चर्य है न! ये लोग भूतकाल को वर्तमानकाल में लाते हैं। इन भारतीयों को भी धन्य है न! भूतकाल को वर्तमानकाल में लाते हैं और वह प्रयोग हमें दिखाते हैं!
परिणाम कल्पांत के यह एक कल्पांत किया तो 'कल्प' के अंत तक भटकने का हो जाता है, एक पूरे कल्प के अंत तक भटकने का हुआ यह।
वह 'लीकेज' नहीं करते प्रश्नकर्ता : नरसिंह मेहता ने, उनकी पत्नी की मृत्यु हुई तब ' भलु थयुं भांगी जंजाळ' (भला हुआ छूटा जंजाल) बोल उठे, तो वह क्या कहलाएगा?
दादाश्री : पर वे बावले होकर बोल उठे कि 'भलु थयुं भांगी जंजाळ'। यह बात मन में रखने की होती है कि 'जंजाल छट गया।' वह मन में से 'लीकेज' नहीं होना चाहिए। पर यह तो मन में से 'लीकेज' होकर बाहर निकल गया। मन में रखने की चीज़ जाहिर कर दें, तो वे बावले मनुष्य कहलाते हैं।
ज्ञानी होते हैं बहुत विवेकी और 'ज्ञानी' बावले नहीं होते। ज्ञानी बहुत समझदार होते हैं। मन में सबकुछ होता है कि 'भला हुआ छूटा जंजाल' पर बाहर क्या कहते हैं? अरेरे, बहुत बुरा हुआ। यह तो मैं अकेला अब क्या करूँगा?! ऐसा
भी कहते हैं। नाटक करते हैं। यह जगत् तो स्वयं नाटक ही है। इसलिए अंदर जानो कि 'भला हुआ छूटा जंजाल' पर विवेक में रहना चाहिए। 'भला हुआ छूटा जंजाल, सुख से भजेंगे श्री गोपाल' ऐसा नहीं बोलते। ऐसा अविवेक तो कोई बाहरवाला भी नहीं करता। दुश्मन हो, फिर भी विवेक से बैठता है, मुँह शोकवाला करके बैठता है! हमें शोक या और कुछ नहीं होता, फिर भी बाथरुम में जाकर पानी लगाकर, आकर आराम से बैठते हैं। यह अभिनय है। दी वर्ल्ड इज़ दी ड्रामा इटसेल्फ, (संसार स्वयं एक नाटक हैं) आपको नाटक ही करना है केवल, अभिनय ही करना है. लेकिन अभिनय 'सिन्सियरली' करना है।
जीव भटके तेरह दिन? प्रश्नकर्ता : मृत्यु के बाद तेरह दिन का रेस्टहाउस होता है, ऐसा कहा जाता है?
दादाश्री : तेरह दिन का तो इन ब्राह्मणों को होता है। मरनेवाले को क्या? वह ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि रेस्टहाउस है। ये घर के ऊपर बैठा रहेगा, अँगूठे जितना, और देखता रहेगा। अरे, मुए, देखता किस लिए रहता है? पर देखो उनका तूफ़ान, देखो तूफ़ान ! इतना अँगूठे जितना ही है, कहते हैं, और खपरैल पर बैठा रहता है। और अपने लोग सच मानते हैं, और ऐसा सच न मानें, तो तेरही करते नहीं ये लोग। नहीं तो ये लोग तेरही आदि कुछ भी नहीं करते।
प्रश्नकर्ता : गरुड़ पुराण में लिखा है कि अंगूठे जितना ही आत्मा
दादाश्री : हाँ, उसका नाम ही गरुड़ पुराण है न! पुराणा (पुराना) कहलाता है। अंगूठे जितना आत्मा, इसलिए प्राप्ति ही नहीं होती न, दिन ही नहीं फिरते! एवरी डे फ्रायडे! करने गए साइन्टिफिक, हेतु साइन्टिफिक था, पर थिन्किंग सब बिगड़ गई। ये लोग उस नाम पर क्रियाएँ करते