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६. व्यपार, धर्म समेत
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... नफा-नुकसान में, हर्ष - शोक क्या?
व्यापार में मन बिगड़े तब भी नफा ६६, ६१६ होगा और मन नहीं बिगड़े तब भी नफा ६६, ६१६ रहेगा, तो कौन सा व्यापार करना चाहिए?
हमारे बड़े व्यापार चलते हैं, पर व्यापार का कागज़ 'हमारे' ऊपर नहीं आता। क्योंकि व्यापार का नफा और व्यापार का नुकसान भी हम व्यापार के खाते में ही डालते हैं। घर में तो, मैं नौकरी करता होऊँ और जितनी पगार मिले, उतने ही पैसे देता हूँ। बाकी का नफा भी व्यापार का और नुकसान भी व्यापार के खाते में ।
पैसों का बोझा रखने जैसा नहीं है। बैंक में जमा हुए तब चैन की साँस ली, फिर जाएँ तब दुःख होता है। इस जगत् में कहीं भी चैन की साँस लेने जैसा नहीं है। क्योंकि 'टेम्परेरी' है ।
व्यापार में हिताहित
व्यापार कौनन-सा अच्छा कि जिसमें हिंसा न समाती हो, किसी को अपने व्यापार से दुःख न हो। यह तो किराने का व्यापार हो तो एक सेर में से थोड़ा निकाल लेते हैं। आजकल तो मिलावट करना सीखे हैं। उसमें भी खाने की वस्तुओं में मिलावट करे तो जानवर में, चौपयों में जाएगा। चार पैरवाला हो जाए, फिर गिरे तो नहीं न? व्यापार में धर्म रखना, नहीं तो अधर्म प्रवेश कर जाएगा।
प्रश्नकर्ता : अब व्यापार कितना बढ़ाना चाहिए?
दादाश्री : व्यापार इतना करना कि आराम से नींद आए, हम जब उसे धकेलना चाहें तब वह धकेला जा सके, ऐसा होना चाहिए। जो आती नहीं हो, उस उपाधी को बुलाना नहीं चाहिए।
ब्याज लेने में आपत्ति ?
प्रश्नकर्ता: शास्त्रों में ब्याज लेने का निषेध नहीं है न?
दादाश्री : हमारे शास्त्रों ने ब्याज पर आपत्ति नहीं उठाई है, परन्तु
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क्लेश रहित जीवन सूदखोर हो गया तो नुकसानदायक है। सामनेवाले को दुःख न हो तब तक ब्याज लेने में परेशानी नहीं है।
किफ़ायत तो 'नोबल' रखनी
घर में किफ़ायत कैसी चाहिए? बाहर खराब न दिखे, ऐसी मितव्ययता होनी चाहिए। किफ़ायत रसोई में घुसनी नहीं चाहिए, उदार किफ़ायत होनी चाहिए। रसोई में किफ़ायत घुसे तो मन बिगड़ जाता है, कोई मेहमान आए तो भी मन बिगड़ जाता है कि चावल खर्च हो जाएँगे ! कोई बहुत उड़ाऊ हो तो उसे हम कहें कि 'नोबल' किफ़ायत करो।
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