________________
२. योग- उपयोग परोपकाराय
१९
अच्छे कृत्य करते हैं। पर वे खुद कर्त्ता भाव में नहीं हैं। ये पेड़ जीवित हैं। सभी दूसरों के लिए अपने फल देते हैं। आप अपने फल दूसरों को दे दो। आपको अपने फल मिलते रहेंगे। आपके जो फल उत्पन्न हों- दैहिक फल, मानसिक फल, वाचिक फल, 'फ्री ऑफ कोस्ट' लोगों को देते रहो तो आपको आपकी हरएक वस्तु मिल जाएगी। आपकी जीवन की ज़रूरतों में किंचित् मात्र अड़चन नहीं आएगी और जब वे फल आप अपने आप खा जाओगे तो अड़चन आएगी। यदि आम का पेड़ अपने फल खुद खा जाए तो उसका जो मालिक होगा, वह क्या करेगा? उसे काट देगा न? इसी तरह ये लोग अपने फल खुद खा जाते हैं। इतना ही नहीं ऊपर से फ़ीस माँगते हैं । एक अर्जी लिखने के बाईस रुपये माँगते हैं। जिस देश में 'फ्री ऑफ कोस्ट' वकालत करते थे और ऊपर से अपने घर भोजन कराकर वकालत करते थे, वहाँ यह दशा हुई है। यदि गाँव में झगड़ा हुआ हो, तो नगरसेठ उन दो झगड़नेवालों से कहता, 'भैया चन्दूलाल आज साढ़े दस बजे आप घर आना और नगीनदास, आप भी उसी समय घर आना।' और नगीनदास की जगह यदि कोई मज़दूर होता या किसान होता, जो लड़ रहे होते तो उनको घर बुला लेता। दोनों को बिठाकर, दोनों को सहमत करवा देता। जिसके पैसे चुकाने हों, उसे थोड़े नक़द दिलवाकर, बाकी के किश्तों में देने की व्यवस्था करवा देता। फिर दोनों से कहता, 'चलो, मेरे साथ भोजन करने बैठ जाओ।' दोनों को खाना खिलाकर घर भेज देता । हैं आज ऐसे वकील ? इसलिए समझो और समय को पहचानकर चलो। और यदि खुद, खुद के लिए ही करे, तो मरते समय दुःखी होता है। जीव निकलता नहीं और बंगले मोटर छोड़कर जा नहीं पाता !
और यह लाइफ यदि परोपकार के लिए जाएगी तो आपको कोई भी कमी नहीं रहेगी। किसी तरह की आपको अड़चन नहीं आएगी। आपकी जो-जो इच्छाएँ हैं, वे सभी पूरी होंगी और ऐसे उछल-कूद करोगे, तो एक भी इच्छा पूरी नहीं होगी। क्योंकि वह रीति, आपको नींद ही नहीं आने देगी। इन सेठों को तो नींद ही नहीं आती है, तीन-तीन, चार-चार दिन तक सो ही नहीं पाते, क्योंकि लूटपाट ही की है, जिस - तिस की ।
क्लेश रहित जीवन
प्रश्नकर्ता: परोपकारी मनुष्य लोगों के भले के लिए कहे तो भी लोग वह समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं, उसका क्या?
२०
दादाश्री : ऐसा है कि यदि परोपकार करनेवाला सामनेवाले की समझ देखे तो वह वकालत कहलाती है। इसलिए सामनेवाले की समझ देखनी ही नहीं चाहिए। यह आम का पेड़ है, वह फल देता है। तब वह आम का पेड़ अपने कितने आम खाता होगा?
प्रश्नकर्ता: एक भी नहीं।
दादाश्री : तो वे सारे आम किसके लिए हैं?
प्रश्नकर्ता: दूसरों के लिए।
दादाश्री : हाँ, तब वह आम का पेड़ देखता है कि यह लुच्चा है कि भला है, ऐसा देखता है? जो आए और ले जाए उसके वे आम, मेरे नहीं। परोपकारी जीवन तो वह जीता है।
प्रश्नकर्ता: पर जो उपकार करे उसके ऊपर ही लोग दोषारोपण करते हैं, फिर भी उपकार करना ?
दादाश्री : हाँ, वही देखने का है न! अपकार पर उपकार करे वही सच्चा है। ऐसी समझ लोग कहाँ से लाए? ऐसी समझ हो तब तो फिर काम ही हो गया ! यह परोपकारी की तो बहुत ऊँची स्थिति है, यही सारे मनुष्य जीवन का ध्येय है । और हिन्दुस्तान में दूसरा ध्येय, अंतिम ध्येय मोक्षप्राप्ति का है।
प्रश्नकर्ता: परोपकार के साथ 'इगोइज़म' की संगति होती है?
दादाश्री : हमेशा परोपकार जो करता है, उसका 'इगोइज़म' नोर्मल ही होता है, उसका वास्तविक 'इगोइज़म' होता है और जो कोर्ट में डेढ़ सौ रुपये फ़ीस लेकर दूसरों का काम करते हों, उनका 'इगोइजम' बहुत बढ़ा हुआ होता है। अर्थात् जो 'इगोइज़म' बढ़ाने का नहीं होता, वह 'इगोइज़म' बहुत बढ़ गया होता है।