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दादा भगवान?
दादा भगवान?
प्रेमदृष्टि कबूल की, कि भगवान जैसे मानुष, बहुत सुखी मानुष! लोग कहते सुखी मानुष और मैं चिंता अपार किया करता था।
एक दिन नींद ही नहीं आ रही थी, चिंता मिटती नहीं थी। फिर बैठ गया और एक पुडिया बनाई, जिसमें (मन से) सारी चिंताएँ रखी। ऐसे लपेटा, वैसे लपेटा और ऊपर विधि की और फिर दो तकियों के बीच रखकर सो गया, तब बराबर की नींद आ गई। और फिर सबेरे उठकर उस पुडिया को विश्वामित्री नदी में बहा दी। फिर चिंता कम हो गई। पर जब 'ज्ञान' हुआ तब सारे संसार को देखा और जाना।
दादाश्री : वह छोड़ने से छूटता नहीं, अहंकार छूटता है कहीं? वह तो सूरत के स्टेशन पर यह ज्ञान प्रकट हो गया और अपने आप छूट गया। बाकी, छोड़ने से छूटता नहीं है। छोड़नेवाला कौन? अहंकार के राज्य में छोड़नेवाला कौन? जहाँ राजा ही अहंकार हो, उसे कौन छोड़ेगा?
उस दिन से 'मैं' अलग ही स्वरूप में
प्रश्नकर्ता : आपको जो ज्ञान प्राप्त हआ उस प्रसंग का थोडा-सा वर्णन कीजिये न! उस समय आपके क्या मनोभाव थे?
प्रश्नकर्ता : पर 'ज्ञान' से पहले भी यह जागृति तो थी न, कि यह अहंकार है, ऐसी?
दादाश्री : हाँ, यह जागृति तो थी। अहंकार है यह भी मालूम होता था, पर वह पसंद था। फिर जब बहुत काटा तब पता चला कि यह हमारा मित्र नहीं हो सकता, यह तो हमारा दुश्मन है, इसमें किसी में मज़ा नहीं है।
प्रश्नकर्ता : वह अहंकार कब से दुश्मन लगने लगा?
दादाश्री : रात को नींद नहीं आने देता था, इसलिए समझ गया कि यह किस प्रकार का अहंकार है। इसलिए तो एक रात में पुड़िया बनाकर सुबह जाकर विश्वामित्री में बहा आया! और क्या करता?
प्रश्नकर्ता : माने पुड़िया में क्या रखा?
दादाश्री : सारा अहंकार! ऐसा सब नहीं चाहिए। किसके खातिर यह सब? बिना बजह के, न लेना, न देना! लोग कहें कि 'अपार सुखिया है' और मझे तो कहीं सूख का छींटा भी नज़र नहीं आता हो, भीतर अहंकार की अपार चिंता-परेशानियाँ होती रहे।
दादाश्री : मेरे मनोभाव में किसी प्रकार का कोई विशेषभाव नहीं था। मैं तो इस ओर ताप्ति रेलवे लाईन पर सोनगढ-व्यारा नामक जगह है वहाँ मेरा बिज़नेस था, वहाँ से मैं लौटकर सूरत स्टेशन पर आया था। तब एक भाई हमेशा मेरे साथ रहा करते थे। उन दिनों मैं सूर्यनारायण के
अस्त होने से पहले भोजन किया करता था, इसलिए ट्रेन में ही भोजन कर लिया था और सूरत के स्टेशन पर छह बजे ट्रेन से उतरे थे। उस समय साथवाले भाई, भोजन के जूठे बर्तन धोने को गये थे और मैं रेल्वे की बेन्च पर अकेला बैठा था। मुझे उस समय यह 'ज्ञान' उत्पन्न हो गया कि जगत क्या है और कैसे चल रहा है, कौन चला रहा है और यह सब कैसे चल रहा है, वह सारा हिसाब नज़र में आ गया। इसलिए उस दिन मेरा इगोइज्म (अहंकार) और सब कुछ खतम हो गया। फिर मैं अलग ही स्वरूप में रहने लगा, विदाऊट इगोइज्म और विदाऊट ममता (बिना अहंकार और बिना ममता के)! पटेल उसी तरह, पहले की तरह ही थे, पर 'मैं' अलग स्वरूप हो गया था! तब से निरंतर समाधि के सिवा, एक सेकिन्ड के लिए भी, और कुछ रहा नहीं है।
सूरत स्टेशन पर क्या नज़र आया?
वह अहंकार कब छूटा?
प्रश्नकर्ता : उस अहंकार को छोड़ने का मन कब हुआ? वह पागल अहंकार आपने कब छोड़ दिया?
प्रश्नकर्ता : दादाजी, जब आपको सूरत के स्टेशन पर ज्ञान हुआ, तब कैसा अनुभव हुआ था?