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दादा भगवान ?
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साढ़े तीन घंटे 'लेट' है माने हम फिजूल टाईम (समय) व्यतीत नहीं करेंगे और हम उपयोगपूर्वक रहेंगे।
ऐसे प्रबंध किया काउन्टर पुलियों का
अब राह देखना और फिर जबरदस्त 'रिवॉल्युशन'!
इन मजदूरों को प्रति मिनट पचास 'रिवॉल्युशन' (मन की सोचने की गतिशक्ति) होते हैं, जब कि मेरे प्रति मिनट एक लाख रिवॉल्युशन होते हैं। अर्थात् मेरे और मज़दूरों के बीच में अंतर कितना? उनके पचास रिवॉल्युशन होने की वजह से जब आप उनसे कोई बात कहें तो उन्हें समझने में बहुत देर होगी। आप सादी-सी बात, व्यवहार की सीधी-सी बात बतायेंगे तो वह भी उसकी समझ में नहीं आयेगी। इसलिए फिर उसे अलग तरीके से समझायें तब उसके पल्ले पड़ेगी। अब मेरे रिवॉल्युशन अधिक होने की वज़ह से मेरी बात इन ऊँची कौमवालों की समझ में आते भी देर लगती थी। हमारे समझाने पर भी वे समझते नहीं थे। इसलिए मैं क्या कहता था कि, 'यह नालायक है, कमअक्ल है।' इसकी वजह से भीतर में पावर अधिक बढ़ जाता था। 'इतना समझाने पर भी नहीं समझता ! कैसा मूर्ख मनुष्य है !' ऐसा कहकर उस पर गुस्सा करता फिरूँ। फिर मेरी समझ में आया कि यह रिवॉल्युशन की वजह से ऐसा होता है, जिसके कारण उसके दिमाग़ में उतरता नहीं है। अब हम सामनेवाले का कसूर बतायें वह हमारा कसूर है। इसलिए फिर मैंने पुलियाँ देना शुरू कर दिया।
क्योंकि यदि पंद्रह सौ रिवॉल्युशन का पंप, तीन हजारवाले इंजन पर चलायेंगे तो पंप टूट जायेगा। इसके लिए फिर पुली देनी पड़ेगी, काउन्टर पुली। इंजन चाहे तीन हजारवाला हो और पंप भले ही पंद्रह सौवाला हो पर बीच में पुलियाँ देनी चाहिए ताकि पंप तक पंद्रह सौ ही पहुँचे। काउन्टर पुली आपकी समझ में आती है? उसी प्रकार मैंने भी फिर लोगों से बात करते समय काउन्टर पुलियाँ देना शुरू कर दिया। फिर मेरा गुस्सा होना बंद हो गया। बात सामनेवाले की समझ में आये, उस प्रकार काउन्टर पुली देनी चाहिए।
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दादा भगवान?
(३) अहंकार - मान विरुद्ध जागृति निवासस्थान का चयन भी विचारपूर्वक
वणिक प्रकृति का माल थोड़ा क्षत्रिय में मिलायें और क्षत्रिय प्रकृति का माल थोड़ा वणिक में मिलायें और फिर जो मिक्चर होगा वह बहुत ठीक होगा। दहीं यदि खट्टा-मीठा रहा तो श्रीखंड मज़ेदार बनेगा। इसलिए हमने पहले से ही क्या किया था? पहले तो हम पटेलों के मुहल्ले में रहते थे। हमारे बड़े भैया का व्यवहार पटेलों के साथ था। पर वह व्यवहार मुझे रास नहीं आता था। मैं छोटा था पर पटेलों के साथ रहना मुझे रास नहीं आता था। क्यों रास नहीं आता था? क्योंकि यों उम्र तो बाईस की थी, पर मुंबई केवल घुमने हेतु जाया करता था और लौटते समय मुंबई का हलवा, जो किफायती दामों पर मिलता था, वह ले आता था । जो हमारी भौजी सब पड़ौसिओं में बाँटती थीं। ऐसे एक-दो बार ले गया था पर एक बार ले जाना भूल गया। इस पर सारे पड़ौसी, जिन से भौजी मिलती, कहते 'इस बार हलवा नहीं लाए क्या?' मुझे लगा कि, 'यह पीड़ा जो नहीं थी कहाँ से मोल ली?' पहले ऐसी पीड़ा नहीं थी। कोई 'नहीं लाए' कहकर अपमानित नहीं करता था। यह लाए, वही हमारी भूल हो गई। एक बार लाए, दूसरी बार लाए और तीसरी बार नहीं लाए कि तमाशा हो गया । 'लीजिये, इस बार नहीं लाए?' अब हम तो फँसे । अर्थात् इन लोगों के साथ व्यवहार करने योग्य नहीं है।
बाकी उन क्षत्रियों का सारा व्यवहार कैसा होता है? वे कहेंगे, यदि जरूरत हो तो हमारा सिर उतार लेना पर आपको हमें देना पड़ेगा। सिर उतारकर लेने-देने की ही तैयारियाँ इनके सौदे कैसे? बड़े ही होंगे! सट्टे का बहुत बड़ा बिजनेस, सिर ही काट लेना और उतार देना। इसलिए हमें यह सिर का लेन-देन रास नहीं आया। हमें किसी का सिर नहीं चाहिए और वह तो हमारा सिर माँगने आये। ऐसे सौदो में हमें पड़ना ही नहीं था, इसलिए तय किया कि वणिक के साथ रहा जाएँ।
एक आदमी ने मुझ से पूछा था कि रावण का राज्य क्यों जाता रहा?