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दादा भगवान?
दादा भगवान?
है। अज्ञान पढ़ना नहीं पड़ता। अज्ञान तो साहजिक रूप से आ जाए। ज्ञान पढ़ना चाहिए। मेरे आवरण कम थे, इसलिए तेरहवें साल में ज्ञान हो गया था। बचपन में गुजराती स्कूल के मास्टरजी ने मुझसे कहा, 'आप यह लघुत्तम सिखिये।' तब मैंने पूछा, 'लघुत्तम माने आप क्या कहना चाहते हैं? लघुत्तम कैसे होता है?' तब उन्हों ने बताया, 'यह जो रकमें दी गईं हैं, उसमें से छोटी से छोटी रकम, जो अविभाज्य हो, जिसका फिर से भाग नहीं किया जा सके, ऐसी रकम खोज निकालनी है।' उस समय मैं छोटा था पर लोगों को कैसे संबोधित करता था? 'ये रकमें अच्छी नहीं है।' मनुष्य के लिए 'रकम' शब्द का प्रयोग करता था। इसलिए मुझे यह बात रास आई। अर्थात् मुझे ऐसा लगा कि इन 'रकमों' के भीतर भी ऐसा ही है न? अर्थात् भगवान सभी में अविभाज्य रूप से विध्यमान है। इसलिए मैंने इस पर से तुरन्त ही भगवान खोज निकाले थे। ये सारे मनुष्य 'रकमें' ही है न! उसमें भगवान अविभाज्य रूप से रहे हुए हैं।
आत्मा के सिवा और कुछ नहीं सीखा बचपन में मैं साइकिल चलाता था, तब बावन रूपयों में रेले कंपनी की साइकिल मिलती थी। उस समय साइकिल में पंकचर होने पर सभी अपने अपने घर पर रिपेर करते थे। मैं तो उदार था इसलिए एक साइकिलवाले से जाकर कहा कि, 'भैया. इसका पंकचर ठीक कर देना जरा।' इस पर सभी मुझ से कहने लगे कि, 'आप बाहर रिपेयर क्यों करवाते हैं? इसमें करना क्या है?' मैंने उत्तर दिया कि, 'भैया! मैं यहाँ यह सब सीखने नहीं आया हूँ। इस दुनिया में बहुतेरी चीजें हैं, उन सभी को सीखने के लिए मैंने जन्म नहीं लिया है। मैं तो आत्मा सीखने आया है और यदि यह सब सीखने बैतूं तो उस आत्मा के बारे में उतना कच्चापन रह जाए।' इसलिए मैंने सीखा ही नहीं। साइकिल चलानी आती थी पर वह भी कैसी? सीधे सीधे साइकिल सवार होना नहीं आता था, इसलिए पीछे की धुरा पर पैर रखकर सवार होता था! और कुछ आया नहीं और सीखने का प्रयत्न भी नहीं किया। यह तो आवश्यकतानुसार सीख लेता था। और अधिक सीखने की ज़रूरत ही नहीं।
घड़ी हुई दुःखदायी मेरा किसी और ध्यान ही नहीं था। कुछ नया सीखने का प्रयत्न नहीं किया था। इसे सीखने बैतूं तो उतनी उसमें (आत्मा सीखने में) कमी रह जाए न? इसलिए नया सीखना नहीं था।
बचपन में एक सेकन्ड हैन्ड घड़ी पंद्रह रुपये में लाया था। उसे पहनकर सिरहाने हाथ रखकर सो गया। परिणाम स्वरूप फिर कान में दर्द होने लगा, इसलिए मैंने मन में सोचा कि, यह तो दुःखदायी हो गई। इसलिए फिर कभी नहीं पहनी।
चाबी भरने में समय नहीं गँवाया घड़ी की चाबी भरना मेरे लिए मुसीबत थी। हमारे साझीदार बोले कि यह सात दिन की चाबीवाली घड़ी है, इसे ले आये। इसलिए फिर सात दिन की चाबीवाली घड़ी ले आया। पर एक दिन एक पहचानवाले आये, कहने लगे कि, 'घड़ी बड़ी सुंदर है।' इस पर मैंने कह दिया कि, 'ले जाइये आप, मुझे चाबी भरने की मुसीबत है!' इस पर फिर हीराबा लड़ने लगीं, आप तो जो जी में आये वह सब औरों को दे दिया करते हैं, अब बिना घड़ी के मैं वक्त कैसे जानूँगी? उस समय हमारे भानजे पंद्रह साल से घड़ी की चाबी घुमाते रहते हैं। मैंने कभी भी घड़ी की चाबी घुमाई नहीं है! मैं तो कभी केलेन्डर भी नहीं देखता! मुझे केलेन्डर देखकर भी क्या करना है? कौन फाड़ेगा पन्ना उसका? केलेन्डर का पन्ना भी मैंने फाड़ा नहीं है। ऐसी फुरसत, ऐसा वक्त मेरे पास कहाँ है? घड़ी की चाबी यदि घुमाने लगूं तो मेरी चाबी कब घुमेगी? अर्थात् मैंने किसी वस्तु के लिए समय बिगाड़ा ही नहीं है।
रेडियो माने पागलपन एक मित्र ने कहा, 'रेडियो लाइए'। मैंने कहा, 'रेडियो? और वह मैं सुनूँगा? फिर मेरे टाईम का क्या होगा?' यह लोगों के पास सुनने पर उक्ता जाता हूँ, तो फिर वह हमारे पास वह कैसे हो सकता है? वह मेडनेस (पागलपन) है सारी!