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दादा भगवान?
दादा भगवान?
साथ) एकाकार रहता हूँ, इसलिए उस दर्शन से फल की प्राप्ति होगी। इसलिए उस पूर्ण स्वरूप के दर्शन करने का माहात्म्य है न!
ग्यारहवाँ आश्चर्य यह अक्रम विज्ञान भगवान महावीर तक दस आश्चर्य हुए और यह ग्यारहवाँ आश्चर्य है। ज्ञानी पुरुष व्यापारी के रूप में वीतराग हैं, व्यापारी भाव से वीतराग हैं। ऐसे दर्शन हो वह अजूबा कहलाए! देखिए न, यह हमारे कोट और टोपी! ऐसा तो कहीं होता होगा ज्ञानी में? उसे परिग्रह से क्या लेना-देना? जिसे कुछ नहीं चाहिए, फिर भी वे परिग्रह में फँसे हैं! उन्हें कुछ नहीं चाहिए,
और हैं अंतिम दशा में! पर लोगों की तकदीर में नहीं होगा, इसलिए यह संसारी भेष में हैं! अर्थात् यदि त्यागी का भेष होता तो लाखों-करोडों लोगों का काम बन जाता! लेकिन इन लोगों के पुण्य इतने कच्चे हैं!
मैंने जो सुख पाया वह सभी पायें प्रश्नकर्ता : आपको धर्म प्रचार की प्रेरणा किसने दी?
दादाश्री : धर्म प्रचार की यह प्रेरणा सारी कुदरती है। मुझे खुद को जो सुख उत्पन्न हुआ, इसलिए भावना हई कि इन लोगों को भी ऐसा ही सुख हो। यही प्रेरणा!
लोग मुझसे पूछा करते हैं कि 'आप जगत कल्याण की निश्चित मनोकामना कैसे पूर्ण करेंगे?' आपकी अब उम्र हो गई। सुबह उठते-उठते, चाय पीते-पीते दस तो बज ही जाते हैं। 'अरे भैया, हमें इस स्थूल देह को कुछ करना-धरना नहीं है, सूक्ष्म में हो रहा है सब।' यह स्थूल तो मात्र दिखावा करना है। इनको स्थूल का आधार तो देना ही होगा न?
हृदय भिगोए, ज्ञानी की करुणा प्रश्नकर्ता : आप वीतरागी का लोकसंपर्क से क्या लेना-देना?
दादाश्री : वीतराग भाव, और कोई संबंध नहीं है। पर इस समय तो पूर्ण वीतराग है ही नहीं न! आप जिससे पूछ रहे हैं वह इस समय
पूर्ण वीतराग नहीं है! इस समय हम तो खटपटिये वीतराग हैं। खटपटिया माने क्या कि जो हमेशा उसी भावना में रहते है कि कैसे इस जगत का कल्याण हो। इस कल्याण हेतु खटपट करते रहें (अपनी शक्ति व्यय करते हैं), बाकी वीतराग और जनसंपर्क को कोई लेना-देना ही नहीं है। पूर्ण वीतराग तो केवल दर्शन दिया करें, दूसरा कुछ नहीं करते।
प्रश्नकर्ता : पर वीतराग के द्वारा जो जनसंपर्क किया जा रहा है वह अपने कर्म खपाने के हेतु कर रहे है?
दादाश्री : अपना हिसाब पूरा करने के लिए, दूसरों के लिए नहीं। उन्हें और कोई भावना नहीं। जैसा हमारा कल्याण हुआ ऐसा इन सभी लोगों का कल्याण हो, ऐसी हमारी भावना रहती है। वीतरागों को ऐसा नहीं होता। बिलकुल भावना ही नहीं, पूर्णतया वीतराग! और हमारी तो यह एक तरह की भावना है। इसीलिए बड़े सबेरे उठकर बैठ जाते हैं, आराम से। और सत्संग शुरू कर देते हैं, जो रात के साढे ग्यारह बजे तक चलता रहता है। अर्थात् यह हमारी भावना है। क्योंकि हमारे जैसा सुख प्रत्येक को प्राप्त हो! इतने सारे दुःख किसलिए भोगना? दुःख है ही नहीं और बिना वजह दुःख भुगत रहे हैं। यह नासमझी निकल जाए तो दुःख जाए। अब नासमझी कैसे निकले? कहने पर नहीं निकलती, आप दिखायें तब निकले। इसलिए हम तो करके दिखलाते हैं। इसे मूर्त स्वरूप कहते हैं। इसलिए श्रद्धा की मूर्ति कहलाये।
प्रश्नकर्ता : आप्त पुरुष की वाणी, वर्तन और विचार कैसे होते हैं ?
दादाश्री : वह सब मनोहारी होते हैं, मन को हरनेवाले होते हैं, मन प्रसन्न हो जाए। उनका विनय अलग तरह का होता है। वह वाणी अलग तरह की होती है। विदाऊट इगोइज्म (निरहंकारी) वर्तन होता है। बिना इगोइज्म का वर्तन संसार में शायद ही कहीं देखने को मिलता है वर्ना मिलनेवाला ही नहीं!
ज्ञानी किसे कहते हैं? प्रश्नकर्ता : ज्ञानी की व्याख्या क्या है?