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भुगते उसीकी भूल
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लुढ़कता लुढ़कता कोई पत्थर सिर पर पड़ा और खून निकल आया तो ?
प्रश्नकर्ता: उस परिस्थितिमें कर्मके अधीन हमें लगना होगा इसलिए लगा ऐसा मानेंगे ।
दादाश्री : लेकिन, क्या उस पहाड़को गालियाँ नहीं दोगे ? गुस्सा नहीं करोगे उस वक्त ?
प्रश्नकर्ता: उसमें गुस्सा करनेकी वजह नहीं है, क्योंकि सामने किसने किया उसे हम पहचानते नहीं है ।
दादाश्री : वहाँ पर क्यों सयानापन दिखाते हो ?! साहजिक सपानापन आ जाये कि नहीं आये ? उसी प्रकार ये सभी पहाड़ ही है । ये रोजाना पत्थर मारते हैं, गालियाँ देते हैं, चोरियाँ करते हैं वे सभी पहाड़ ही है, चेतन नहीं है । यह समझमें आ जाये तो काम बन जाये ।
गुनहगार दिखता है, वह आपके भीतरी शत्रु क्रोध- मान-मायालोभ हैं वे दिखाते हैं। खुदकी द्रष्टिसे गुनहगार नहीं दिखता, क्रोध-मानमाया- लोभ दिखते है । जिसे क्रोध - (17) मान-माया लोभ नहीं है, उसे कोई गुनहगार दिखानेवाला हो ही नहीं और उसे कोई गुनहगार दिखता भी नहीं है । वास्तवमें गुनहगार जैसा कुझ है ही नहीं । यह तो क्रोध-मानमाया-लोभ घुस गये हैं और वे "मैं चंदुभाई हूँ" ऐसा माननेकी वज़ह से घुस गये है । "मैं चंदुभाई हूं" यह मान्यता छूट गईतो क्रोध - मान-मायालोभ जाते रहेंगे । फिर भी घर खाली करनेमें उन्हें थोड़ी देर लगेगी, क्योंकि कई दिनोसे घुसे हुए है न!
ये तो संस्कारी खिज !
प्रश्नकर्ता : एक तो खुद दुःख भुगतहो, अब वह अपनी भूलकी वज़हसे भुगतता है। वहाँ फिर दूसरे लोग सब लाल बुझक्कड़ होकर आयें, " अरें क्या कुआ, क्या हुआ ?" करते । पर यहाँ तो कहा गया कि उसमें
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भुगते उसीकी भूल किसीको कुछ लेना-देना नहीं है, वह तो अपनी भूलसे भुगत रहा है । उसका दुःख कोई नहीं ले सकता है ।
दादाश्री : ऐसा है न, जो पूछने आते है, ये सभी जो देखने आते है न वे हमारे बहुत उँचे संस्कारकी वजहसे आते है । वह देखने जाना माने क्या ? वहाँ जाकर उस शख्ससे पूछे, "कैसे हो भैया, अब आपको कैसा लगता है ? तब वह कहेंगा, "अच्छा है अब " इसके मनमें हो कि अहाहा मेरी इतनी बड़ी वेल्यू (प्रतिष्ठा) कितने सारे लोग मुझे देखने आते है, इससे अपना दुःख भूल जायेगा ।"
गुणनफल भागफल !
जोड़ना और घटाना ये दोनों नेचरल एजस्टमेन्ट (प्राकृतिक अनुकूलन) हैं। और गुणनफल भागफल ये मनुष्य अपनी बुद्धिसे किया करते है । अर्थात रात सोते समय मनमें सोचे कि ये प्लॉट महँगे होते जा रहे है, अमुक जगह सस्ते है वे ले लेंगे हम, इस प्रकार भीतर गुणा करता रहे । अर्थात सुखका गुणा करे और दुःखका माग करे । अब सुखका गुणा करने से भयंकर दुखोकी प्राप्ति होती है और दुःखका भाग करने पर भी दुःख कम नहीं होते है । सुखका गुणा (18) करते हैं कि नहीं करते ? ऐसा हो तो मज़ा आयेगा, ऐसा हो तो आनंद होगा, करते है कि नहीं करते ? और ये प्लस माईनस होता है । धीस इझ नेचरल एडजस्टमेन्ट । वे जो दो सौ रूपये खो गये अगर पाँच हजार का धंधेमें नुकशान हुआ, माईनस हो गये, वह नेचरल एडजस्टमेन्ट है । वे दो हजार रूपये जेब काटकर ले गये वह भी नेचरल एडजस्टमेन्ट है । " भुगते उसीकी भूल" यह हम ज्ञानमें देखकर गारन्टीसे कहते है !
प्रश्नकर्ता : ऐसा कहा जाता है कि सुखका गुणा करते हैं, उसमें गलत क्या है ?
दादाश्री : गुणा करना चाहो तो दुःख के करना, सुखके करोंगे तो