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________________ भावना से सुधरे जन्मोजन्म भावना से सुधरे जन्मोजन्म ८. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, जीवित अथवा मृत, किसी का किंचित्मात्र भी अवर्णवाद, अपराध, अविनय न किया जाये, न करवाया जाये या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जायें, ऐसी परम शक्ति दो। ९. हे दादा भगवान ! मुझे जगत कल्याण करने में निमित्त बनने की परम शक्ति दो, शक्ति दो, शक्ति दो। (इतना आप दादा भगवान से माँगना। यह प्रतिदिन यंत्रवत् पढ़ने की चीज़ नहीं है, हृदय में रखने की चीज़ है। यह प्रतिदिन उपयोगपूर्वक भावना करने की चीज़ है। इतने पाठ में समस्त शास्त्रों का सार आ जाता है।) दादाश्री : प्रत्येक शब्द पढ़ चुके? प्रश्नकर्ता : हाँ जी, सब अच्छी तरह पढ़ लिया। अहम् नहीं दुभे... प्रश्नकर्ता : १. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे (दुःखे), न दुभाया (दुःखाया) जाये या दुभाने (दु:खाने) के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे किसी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे, ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम शक्ति दो। कृपया इसे समझाइए। दादाश्री : किसी का अहम् नहीं दुभे, इसलिए हम स्यावाद वाणी माँगते हैं। ऐसी वाणी हम में आहिस्ता-आहिस्ता उत्पन्न होगी। मैं जो वाणी बोलता हूँ न, वह मुझे यह भावना करने से ही फल प्राप्त हुआ है। प्रश्नकर्ता : पर इसमें किसी का अहम् नहीं दुभाना चाहिए, इसका अर्थ ऐसा तो नहीं होता न कि किसी के अहम् का पोषण करना? दादाश्री : नहीं। ऐसे किसी के अहम् का पोषण नहीं करना है। यह तो किसी का अहम् नहीं दुभाना है ऐसा होना चाहिए। मैं कहूँ कि काँच के गिलास नहीं फोड़ना, उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि आप काँच के गिलास की सुरक्षा करना। वे अपनी जगह सुरक्षित ही पड़े हैं। इसलिए उसे फोड़ना नहीं। वे फूटते हैं तो आप अपने निमित्त से मत फोड़ना। और आपको सिर्फ यह भावना करनी है कि मुझ से किसी जीव को किंचित्मात्र दु:ख नहीं हो। उसका अहंकार भग्न नहीं हो, ऐसा रखना चाहिए। उसे उपकारी मानना चाहिए। प्रश्नकर्ता : काम-धंधे में सामनेवाले का अहम् नहीं दुभे ऐसा हमेशा नहीं रह पाता, किसी न किसी का अहम् तो दुभता ही है। दादाश्री : उसे अहम् दुभाना नहीं कहते। अहम् दुभाना यानी क्या कि वह बेचारा कुछ बोलना चाहे और हम कहें, 'चुप बैठ, तू कुछ मत बोल।' ऐसे उसके अहंकार को दभाना नहीं चाहिए। और काम-धंधे में अहम् दुभाना यानी उसमें वास्तव में अहम् नहीं दुभता, मन दुभता है। प्रश्नकर्ता : पर अहम् तो अच्छी वस्तु नहीं है, तो फिर उसे दुभाने में क्या हर्ज है? दादाश्री : वह खुद ही अभी अहंकार स्वरूप है. इसलिए उसे नहीं दुभाना चाहिए। वह जो कुछ भी करता है, उसमें मैं ही सब कुछ हूँ, ऐसा वह मानता है। इसलिए नहीं दुभाना चाहिए। आप घर में भी किसी को नहीं डाँटना। किसी का अहंकार नहीं दुभे ऐसा रखना। किसी का अहंकार नहीं दुभाना चाहिए। लोगों का अहंकार दुभाने पर वे आपसे अलग होते जाते हैं, फिर कभी आपको नहीं मिलते। हमें किसी को ऐसा नहीं कहना चाहिए कि, 'तू यूज़लेस (निकम्मा) है, तू ऐसा है, वैसा है।' ऐसे किसी का मान भंग नहीं करना चाहिए। हाँ, डाँटना ज़रूर, डाँटने में हर्ज नहीं है। कुछ भी हो पर किसी का अहंकार नहीं दुभाना चाहिए। सिर पर प्रहार हो उसमें हर्ज नहीं पर उसके अहंकार पर प्रहार नहीं होना चाहिए। किसी का अहंकार भग्न नहीं करना चाहिए।
SR No.009578
Book TitleBhavna Sudhare Janmo Janam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2008
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size253 KB
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