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(१४) सच्ची समझ, धर्म की
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आप्तवाणी-४
होगी। क्योंकि बहुत ग्रहण हो जाए तब ऊब जाता है।
प्रश्नकर्ता : तब फिर त्याग करें या त्याग नहीं करें?
दादाश्री : त्यागना कितना है? अपने सिर पर जितना बोझ उठा सकें, उतने ही बोझ की जरूरत है और उससे ज्यादा का त्याग कर देना चाहिए। उसके बदले लोग बोझा बढ़ाते रहते हैं। आर्तध्यान और रौद्रध्यान हों, ऐसा हो तो उतना आवश्यकता से अधिक माल त्याग देना चाहिए। त्याग उसे कहते हैं कि वह आर्तध्यान और रौद्रध्यान नहीं करवाए।
...तब धर्म ने रक्षण किया? आपकी जेब कटे और पाँच हजार रुपये जाएँ तो आपको भीतर परेशानी-परेशानी हो जाती है। थानेदार से कहते हो कि, 'साहब, देखिए यहाँ से काटा है, यहाँ से काटा है।' क्योंकि आप मानते हो कि "आप 'चंदूलाल' हो और आपकी जेब कटी है।" और ये भाई हैं वे सीधे घर चले जाते हैं, किसीको कुछ दिखाते-करते नहीं हैं। क्योंकि वे 'प्रवीणभाई' ही नहीं हैं न! और जेब भी उनकी नहीं है। इसलिए उन्हें कुछ भी परेशानी ही नहीं रहती है न! उसे मुक्ति कहते हैं। संसार स्पर्श नहीं हो, वह मुक्ति। और आपको तो परेशानी स्पर्श करती है न?
प्रश्नकर्ता : एकदम, चारों ओर से स्पर्श करती है।
दादाश्री : पूरी ज़िन्दगी धर्म किया, अरे अनंत जन्मों से धर्म किया पर धर्म आपका सगा नहीं हुआ। एक जेब कटे, उससे पहले तो धर्म चला जाता है, वह धर्म ही नहीं कहलाता। हर एक मिनट पर हाज़िर रहे वह धर्म कहलाता है। धर्म रक्षण देता है, शांति देता है. समाधि देता है। चिंता नहीं करवाता। चिंता हो, उसे धर्म नहीं कहते। किसकी चिंता करते हो? बेटी बड़ी हो गई, उसकी? अरे, बेटी बड़ी हई वह उसके शरीर से बड़ी हुई, उसमें तुझे क्या है इतना कुछ? बेटी बड़ी नहीं होगी? यह पौधा भी बड़ा होता है, जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे! यह तो बेटी बडी होती जाती है, वैसे-वैसे भीतर अकुलाहट होती जाती है। और एक व्यक्ति की बेटी थी, वह बड़ी ही नहीं हो रही थी, तब कहता है, 'ठिगनी रह गई
है! इसलिए अकुलाहट होती है।' इस तरह ऐसे अकुलाहटवाले लोग हैं। इन्हें कहाँ पहुँच पाएँ? देखो अकुलाहट, अकुलाहट! जरा अक्कलवाली लड़की होगी तो कहेंगे कि, 'ज़रूरत से ज्यादा अक्कलमंद है' और जरा कम अक्कलवाली होगी तो कहेंगे कि 'पागल है!' चारों तरफ से इसका ठिकाना ही नहीं है न!
कोई अपमान करे तब आपका धर्म चला जाता है क्या? प्रश्नकर्ता : हाँ, चला जाता है।
दादाश्री : रोज भगवान की पूजा करते रहते हैं, फिर भी थोड़ासा किसीने अपमान किया तो वह चला जाता है क्या?
प्रश्नकर्ता : अरे, सेवा-पूजा या माला कर रहे हों, तब भी कोई अपमान करे तो उस घड़ी भी धर्म चला जाता है, साहब!
दादाश्री : धर्म वह कहलाता है कि धर्म होकर परिणमित हो। धर्म होकर परिणमित हो, वह किसे कहते हैं कि सामनेवाला गालियाँ दें, उस घड़ी धर्म हमारी मदद करे। यह तो सिर्फ भागदौड़, भागदौड़ करते हैं। कितने ही मंदिर और जिनालयों की सीढ़ियाँ घिस डालीं, संगमरमर के पत्थर भी घिसने लगे, पर कुछ भी कल्याण नहीं होता है। धर्म हाजिर नहीं रहे, वह धर्म ही नहीं कहलाता। मैंने पाँच बार आपके पास चक्कर लगाए हों तो आप मेरे ज़रूरत के समय पर हाज़िर रहते हो और यह तो धर्म का रोज करते हैं, पर वह (धर्म) ज़रूरत के समय हाज़िर ही नहीं रहता, आने से पहले ही एकदम भाग जाता है, उसे धर्म कैसे कहेंगे? रोज़ किताबें पढ़ते रहते हैं, वे इतनी सारी पढ़ी की दिमाग पूरा किताब जैसा हो गया! दिमाग ही किताब बन गया!! भगवान ने क्या कहा था कि आत्मा जान। उसके बदले ये किताबें ही जानता रहा है। उसका क्या करना है? इतना-इतना पूरी ज़िन्दगी किया, लेकिन आर्तध्यान और रौद्रध्यान होते रहते हैं! क्या करोगे अब? बहुत धोखा खाया है। पूरी ज़िन्दगी क्रोध-मान-माया-लोभ ने लूट लिया और कुछ भी नहीं रहने दिया। अब कमी पड़ेगी तब क्या करोगे?
अनंत जन्मों से धर्म किया, पर धर्म परिणमित नहीं होता और अधर्म