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________________ (३) प्रारब्ध-पुरुषार्थ ४४ आप्तवाणी-४ यह प्रारब्ध-पुरुषार्थ बहुत समझने जैसी वस्तु है। कल थी वही की वही प्रथा आज हो, फिर उसे पुरुषार्थ कैसे कहा जाए? फिर भी पुरुषार्थ नहीं है, वैसा नहीं है। बहुत हुआ तो हज़ार में से दो-पाँच लोगों को होगा। प्रतिशत के हिसाब से बहुत कम होते हैं। और वे भी फिर जानते नहीं कि यह पुरुषार्थ है। वे तो ऐसा ही समझते हैं कि जो जल्दी जा रहा हो उसे ही पुरुषार्थ कहते हैं। हमारे लोग पुरुषार्थ तो जल्दबाजी करनी, हंगामा करना, भागदौड़ करना, पूरा दिन कभी भी फालतू नहीं रहता हो, उसे कहते हैं। 'बहुत पुरुषार्थी व्यक्ति है, बहुत पुरुषार्थी व्यक्ति हैं' ऐसा कहते हैं। अरे, यह लटू पूरा दिन घूमने के लिए ही जन्मा है। उसे पुरुषार्थ कैसे कहा जाए फिर? पुरुषार्थ यानी उपयोगमय जीवन पुरुषार्थ यानी उपगोयमय जीवन । अपने यहाँ शुद्ध उपयोग होता है और दूसरी जगहों पर शुभ उपयोग होता है। जो अशुभ हो चुका है, पर उपयोगपूर्वक उसे शुभ कर देते हैं। यानी जितने लोगों का संयम दिखता है, वह भी स्वाभाविक है। वह खुद जानता नहीं कि मैं पुरुषार्थ कर रहा हूँ। वह उसकी प्रकृति का स्वभाव है। जो स्वाभाविक होता है उसे पुरुषार्थ नहीं कह सकते। पुरुषार्थ हम जानते हैं कि, यह पुरुषार्थ है, दूसरा सब प्रारब्ध है, पुरुष होने के बाद का पुरुषार्थ, वह सच्चा पुरुषार्थ कहलाता है। यह 'रियल' पुरुषार्थ है और वह 'रिलेटिव' पुरुषार्थ कहलाता है। प्रश्नकर्ता : समता और संयम में फर्क क्या है? में तो तपना होता है। कोई कहेगा कि, खुराक में आपको संयम नहीं है। तब खुराक समानुपात लें तो संयम हो जाता है और तप में तो मन को तपाना पड़ता है, जलाकर तपाना पड़ता है और अपना तप तो अलग है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप, वाला तप है। अपना तो, बाहर देह को अशाता होती है, उस घड़ी हमें तप करना पड़ता है। क्योंकि जब तक पूरण है, वह पूरण, गलन नहीं हो जाए, तब तक हमें तप करना पड़ेगा। शोर मचाएँ तो कुछ होगा? भीतर हृदय लाल हो जाए, चीख निकल जाए वैसा हो, वहाँ तप करना पड़ता है। तप अर्थात् क्या? अंतिम तप किसे कहते हैं? 'होम डिपार्टमेन्ट' और 'फ़ॉरेन डिपार्टमेन्ट' एकाकार नहीं हो जाएँ, वहाँ जागृति रहे, उसे तप कहा है भगवान ने! पुरुषार्थ उल्टा करे तो उखड़ भी जाए। खुद 'होल एन्ड सोल' (पूर्ण रूप से) रिस्पोन्सिबल है, जिम्मेदार है। सीधा करना हो तो सीधा कर और उल्टा करना हो तो उल्टा कर। चिंता नहीं हो, वैसा यह ज्ञान है। चिंता से लोग सुलग जाते हैं। एक व्यक्ति मुझे ऐसे कह रहा था कि चिंता नहीं होगी तो मुझसे काम ही नहीं होगा। इसलिए मेरी चिंता रहने दीजिएगा। मैंने उसे कहा कि, 'बहुत अच्छा, तू हमारा ज्ञान ही मत लेना। सत्संग में ऐसे ही आना।' उसके मन में ऐसा कि चिंता हो तो ही यह काम होगा न, नहीं तो काम ही नहीं होगा न! वह जानता नहीं कि खुद करता है या कोई और करता है। उसे तो ऐसा ही मालूम है कि मैं करता हूँ यह सब! दादाश्री : संयम, वह पुरुषार्थ है और समता वह तो ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला स्वभाव है। 'यम' को भी पुरुषार्थ कहा है, 'नियम' को भी पुरुषार्थ कहा है और 'संयम' को भी पुरुषार्थ कहा है। यह दिखनेवाला संयम नहीं है। पुरुषार्थ दिखता नहीं है कभी भी! प्रश्नकर्ता : संयम और तप में क्या भेद है? दादाश्री : दोनों अलग ही हैं। संयम में तपना नहीं होता और तप 'व्यवस्थित' की यथार्थ समझ प्रश्नकर्ता : 'प्रारब्ध' और 'व्यवस्थित' उन दोनों में क्या संबंध है? दादाश्री : ऐसे देखो तो कुछ भी फर्क नहीं है, पर लोगों ने प्रारब्ध का उल्टा अर्थ किया, इसलिए हमने दूसरी भाषा में बात समझाई। परन्तु प्रारब्ध की तुलना में 'व्यवस्थित' ऊँचा है। 'व्यवस्थित' क्या कहता है कि तू तेरा काम करता जा, दूसरा सब फल वगैरह मेरी सत्ता में है। और प्रारब्ध कुछ ऐसा नहीं कहता, इसलिए 'व्यवस्थित', वह कम्पलीट वस्तु है। उस पर आधार रखकर चलो तो परेशानी नहीं आएगी। प्रारब्ध सच्ची बात थी,
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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