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समर्पण
आधि, व्याधि, उपाधि के त्रिविध कलियुगी ताप में भयंकर रूप से ताप्यमान, एकमात्र आत्म-समाधिसुख के तृषातुरों के परम तृप्ति काज, प्रकट परमात्मास्वरूप स्थित वात्सल्यमूर्ति 'दादा भगवान के जगत कल्याण यज्ञ में आहुति स्वरूप, परम ऋणीय भाव से समर्पित।
त्रिमंत्र
आप्त-विज्ञापन हे सुज्ञजन ! तेरा ही स्वरूप' आज मैं तेरे हाथों में आ रहा हूँ ! उसका परम विनय करना, जिससे तू स्वयंम के द्वारा तेरे 'स्व' के ही परम विनय में रहकर स्व-सुखवाली, पराधीन नहीं हो ऐसी, स्वतंत्र आप्तता का अनुभव करेगा!
यही है सनातन आप्तता है। अलौकिक पुरुष की आप्तवाणी की! यही सनातन धर्म है, अलौकिक आप्तता का!
जय सच्चिदानंद