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(४०) वाणी का स्वरूप
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आप्तवाणी-४
दादाश्री : नहीं। यदि सोचकर बोलें, तो वह निराग्रही वाणी होगी ही नहीं। यह तो डाइरेक्ट चेतन को स्पर्श करके निकलती है। 'ज्ञानी' की वाणी जागृति सहित होती है। वह सामनेवाले के हित के लिए ही होती है। किसीका हित थोड़ा भी नहीं बिगड़े, उस अनुसार जागृति में रहता ही
है।
अभी इस काल में उपदेश देने जाएँ तो बंधन हो, वैसा है। कषाय सहित प्ररूपणा वह नर्क में जाने की निशानी है। बहुत हुआ तो मंदकषायी को चला सकते हैं। वर्ना यह तो बहुत ही भारी जोखिम है।
अकषायी वाणी का अर्थ क्या है? वाणी का मालिक 'खुद' नहीं है वह । वाणी का मालिक हो, वह तो क्या कहेगा कि 'मैं कितनी अच्छी वाणी बोला! आपको पसंद आया न?' अर्थात् उसका चेक भुना देता है। हम तो वाणी के मालिक नहीं हैं, मन के नहीं हैं और इस देह के भी मालिक नहीं हैं।
'ज्ञानी पुरुष' की वाणी उल्लासपूर्वक सुनते रहें, उससे वैसी वाणी होती जाती है। सिर्फ नकल करने से कुछ नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता : स्यादवाद वाणी कब निकलती है?
दादाश्री : सभी कर्मों का क्षय हो जाए, क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय हो जाए, तब स्यादवाद वाणी निकलती है। संपूर्ण वीतराग विज्ञान हाजिर होना चाहिए। आत्मा का स्पष्ट अनुभव हो चुका हो, तभी निकलती है। तब तक सारी बुद्धि की बातें, व्यवहार की बातें मानी जाती है। स्यादवाद वाणी नहीं निकले, तब तक मोक्षमार्ग में उपदेश देना भयंकर जोखिमदारी है।
उपदेश का अधिकारी उपदेश कौन दे सकता है? सामनेवाला कोई विवाद खड़ा नहीं कर सके, वही। वर्ना अपने मार्ग में चर्चा होती ही नहीं। हमारी पुस्तक समझने का तरीका क्या है? दो लोग एक जैसा नहीं समझते। एक सच्ची समझवाला और दूसरा अधूरी समझवाला होता है। उसमें अधरी समझवाले ने ज़िद पकड़ी कि 'मेरा ही सच्चा है, तो उसे 'तेरा ही करेक्ट है' कहकर आगे निकल जाओ। सत् की समझ में विवाद नहीं होना चाहिए।
मेरा सच्चा है, ऐसा नहीं मानना चाहिए। मेरा है, इसलिए सच है' ऐसा अंदर होता रहे, वह रोग उत्पन्न हआ कहलाता है। अपनी सच्ची बात सामनेवाला कबूल करेगा ही। यदि नहीं करे तो हमें छोड़ देना चाहिए। मैं जो बोलूँ वह सामनेवाले का आत्मा कबूल करेगा ही। कबूल नहीं करता, वह उसकी आड़ाई है। क्योंकि यह वाणी मेरी नहीं है। इसलिए इसमें भूल नहीं होती। 'मेरी वाणी है' ऐसा जहाँ पर हो, वहाँ पर वाणी में भूल होती
स्यादवादवाणी कब उत्पन्न होती है? अहंकार की भूमिका पूरी हो जाए तब। पूरा जगत् निर्दोष दिखता है, कोई दोषित ही नहीं दिखता! चोर भी हमें दोषित नहीं दिखता। लोग कहते हैं कि चोरी करना गुनाह है, पर चोर क्या समझता है कि चोरी करना मेरा धर्म है। हमारे पास कोई चोर को लेकर आए तो हम उसके कंधे पर हाथ रखकर अकेले में पठेंगे कि 'भाई, यह बिज़नेस तुझे अच्छा लगता है? पसंद है?' फिर वह अपनी सारी हक़ीक़त बताएगा। हमारे पास उसे भय नहीं लगता। मनुष्य भय के कारण झूठ बोलता है। फिर उसे समझाते हैं कि, 'यह तू करता है उसकी जिम्मेदारी क्या आएगी, उसका फल क्या है, उसकी तुझे खबर है?' और 'तू चोरी करता है' वैसा हमारे मन में भी नहीं रहता। ऐसा यदि कभी हमारे मन में हो तो उसके मन पर असर पड़ेगा। हरकोई अपने-अपने धर्म में है। किसी भी धर्म का प्रमाण नहीं दु:खे, वह स्यादवाद वाणी कहलाती है। स्यादवाद वाणी संपूर्ण होती है। हर एक की प्रकृति अलग-अलग होती है, फिर भी स्यादवाद वाणी किसीकी भी प्रकृति को अड़चनरूप नहीं होती।
'ज्ञानी पुरुष' सभी दवाईयाँ बता देते हैं। रोग का निदान भी कर देते हैं और दवाई भी बता देते हैं। हमें सिर्फ पूछ लेना चाहिए कि 'सच्ची बात क्या है? और मुझे तो ऐसा समझ में आया है' तब वे तुरन्त बता देते हैं, और वह 'बटन' दबाएँ कि चलने लगता है!
धर्म की चर्चा में सामनेवाले को समझाने के तरीके अलग-अलग हैं।