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[२१] तपश्चर्या का हेतु जप, तप, व्रत की ज़रूरत कितनी? ड्रगिस्ट (दवाईवाला) के वहाँ की सारी ही दवाईयाँ अपने काम आती हैं? जिसे जो माफिक आती है वही ली जाती है। हमें माफिक आए वह दवा सच्ची, परन्तु उसके कारण दूसरी दवाईयों को गलत नहीं कह सकते। उनके लिए दूसरे मरीज़ होते हैं। जप-तप आदि शुभकर्म बाँधते हैं।
खींचतान करके, जान-बूझकर तप करने का यह काल नहीं है। इस काल में तो अपने आप ही आए हुए तप समतापूर्वक करने हैं। राशन, केरोसीन, चीनी, दूध की कमी में हाय-हाय करते हुए, रात-दिन तपते हुए इन हत् पुण्यशालियों को भला दूसरे और अधिक तपों में किसलिए तपना
शुद्ध में बैठा दें, वे ज्ञानी।
गुरु की ज़रूरत कितनी? गुरु के बिना तो बारहखड़ी भी नहीं पढ़ी जा सकती, तो गुरु के बिना भगवान की आराधना कैसे हो? स्टेशन जाने के लिए भी गुरु की जरूरत है। पग-पग पर गुरु की जरूरत है। और मोक्ष के लिए तो एक मात्र 'ज्ञानी' की जरूरत पड़ेगी।
जहाँ कुछ भी 'कर्त्तापन' नहीं रहता, वह 'ज्ञानी' की कृपा। मुक्ति दिलवाएँ, वे 'ज्ञानी'!
__'रेल्वे के पोइन्टमेन' की तरह सही पटरी पर चढ़ाएँ, वे सच्चे लौकिक गुरु, और पोइन्ट बदल दें, वे आज के लौकिक गुरु! गुरु अर्थात् भारी। खुद डूबें और बैठनेवालों को भी डुबो दें। गुरुकिल्ली सहित गुरु हों तो वे डूबने नहीं देते। 'पूरे जगत् का मैं शिष्य हूँ' - वह गुरुकिल्ली ! 'यह मेरा शिष्य है' ऐसा एक क्षण भी जिसे भान नहीं बरते, उसे शिष्य बनाने का अधिकार है।
एकबार हृदय में गुरुपद पर स्थापित करने के बाद गरु का चाहे कैसा भी विपरीत वर्तन, वाणी या सन्निपात के, पागलपन के उदयों में भी खंडन नहीं करे, वह सच्चा शिष्य। गुरु के प्रति अटूट सिन्सियारिटी ही मोक्ष में ले जाती है! मंडन करने के बाद खंडन करना भयंकर जोखिम है। गुरु, वह पाँचवी घात है। उल्टा नहीं देखते। नहीं तो गरु बनाना ही नहीं, आराधना नहीं हो उसका हर्ज नहीं है, पर विराधना तो नहीं ही होनी चाहिए। इस काल के जीव पूर्वविराधक हैं। गुरु की कमियाँ, निंदा किए बिना सीधे नहीं बैठे रहते!
है?!
'ज्ञानी' को त्यागात्याग नहीं होते हैं। वे तो जो आए उसका निकाल कर देते हैं! भगवान ने वस्तु के त्याग को त्याग नहीं कहा है, वस्तु की मूर्छा के त्याग को त्याग कहा है! भगवान तो मूल को ही देखते हैं न!!!
पूज्य दादाश्री की आज्ञानुसार एक ग्यारस जीवन में हो जाए उसका कल्याण निश्चित है। पाँच इन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन, निराहारी रखे वह सच्ची ग्यारस। उपवास से तन की, मन की और वाणी की शुद्धि होती है, यदि उपयोगपूर्वक हुआ हो तो! आयंबिल - एक ही धान का आहार । मात्र उसकी लिमिट का पद्धतिपूर्वक पालन किया जा सके, ऐसा विवेक होना चाहिए। अजीर्ण के मरीज को अजीर्ण मिटे तब तक उपवास करना हितकारी है। बाक़ी जप-तप और उपवास के साधनों द्वारा आत्मा मिले ऐसा नहीं है।
गुरु बनाते नहीं, गुरु बन जाते हैं। जिन पर नज़र पड़ते ही दिल को ठंडक हो जाए, वे हृदय में गुरुपद पर स्थापित होते हैं। बाक़ी, गुरु की परीक्षा करने के बाद स्थापन करने का जौहरीपन किसने खुद में विकसित किया है?
संसार में शुभमार्ग पर ले जाएँ, वे गुरु और रोकड़ मोक्ष की परख करवा दें, वे 'ज्ञानी'!
उणोदरी के समान दूसरा कोई तप नहीं। पूज्य दादाश्री ने जीवन में सेम्पल जितना भी उपवास नहीं किया। हाँ, पूरी ज़िन्दगी उणोदरी तप किया था।
लाख उपवास करने से भी कषाय नहीं गए तो वैसे उपवास का
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