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(३७) क्रियाशक्ति : भावशक्ति
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आप्तवाणी-४
सामायिक करे, लेकिन घड़ी देखता रहे तो उल्टा भावबीज डालता
जो द्रव्यक्रिया तू करता है वह तो 'व्यवस्थित शक्ति' करवाती है, उसमें तेरा क्या है? भगवान कहते हैं कि, 'हम द्रव्यक्रिया पर ध्यान नहीं देते।' इस काल में द्रव्य का ठिकाना ही नहीं है, इसलिए सीधा भाव करो तो आगे चलेगा।
भावमन : प्रतिष्ठित आत्मा प्रश्नकर्ता : भावमन यानी आत्मा कहलाता है?
दादाश्री : भावमन को आत्मा कहें तब तो फिर भटकने का ही होगा न! क्रमिकमार्ग में भावमन को ही आत्मा कहा है और अपने यहाँ अक्रम में भावमन, द्रव्यमन दोनों को खत्म कर दिया है।
प्रश्नकर्ता : भावमन अर्थात् 'प्रतिष्ठित आत्मा' ही न?
दादाश्री : भावमन प्रतिष्ठित आत्मा नहीं है। भावमन से नया प्रतिष्ठित आत्मा उत्पन्न होता है। द्रव्यमन है, वास्तव में वह प्रतिष्ठित आत्मा है। द्रव्यमन अर्थात् डिस्चार्ज-मन और भावमन अर्थात् चार्ज-मन।
पूरा जगत् द्रव्य को तोड़ता रहता है, यानी क्रियाओं में बदलाव करता है। अपने अक्रम विज्ञान ने तो द्रव्य और भाव दोनों को एक तरफ रख दिया है, क्रम-व्रम नहीं, सीधा-डायरेक्ट एक घंटे में ही समकित हो जाता है। नहीं तो ऐसे लाख जन्मों तक भी समकित का ठिकाना नहीं पड़ता।
प्रश्नकर्ता : अनुभव होने के बाद रटने की ज़रूरत है क्या?
दादाश्री : रटने की, या कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। अक्रमविज्ञान समझने की ज़रूरत है। एक बार समझ ले, उसके बाद हमेशा के लिए मुक्ति हो जाती है। नया कर्म चार्ज नहीं हो, ऐसा यह विज्ञान है।
पूरा ही द्रव्यमन फिज़िकल है और भावमन भ्रांति से उत्पन्न होता है। भ्रांति है तब तक भावमन है। द्रव्यकर्म के चक्षु, वे पिछले जन्म के आठ कर्मों के चक्षु लाते हैं, उन चक्षओं के आधार पर भाव करता है. भावों के आधार पर पदगल परमाणु को पकड़ लेता है और उसका द्रव्य में परिणाम आता है। यह पूरा साइन्स ही है।
प्रश्नकर्ता : जीवन की अंतिम घड़ी के भाव के अनुसार पुद्गल पकड़ता है?
दादाश्री : तुरन्त ही पकड़ लेता है। यह भाव किया वह भ्रांतिभाव है। स्वभावभाव नहीं है। बाहर जो शुद्ध परमाणु हैं कि जिन्हें विश्रसा कहा जाता है, मन के अंदर भ्रांतिभाव हुआ तो वे परमाणु प्रयोगसा के बहाव में चले जाते हैं और जब परिणाम देते है, तब मिश्रसा हो जाते हैं, वे फिर कड़वे-मीठे परिणाम देकर जाते हैं। अभी यह देह मिश्रसा परमाणुओं का बना हुआ है। वे परिणाम देकर जाएंगे। आत्मा लक्ष्य में आए स्वभावभाव में आए, तब नये बीज नहीं डलते हैं।
कर्म का उदय किसीको भी नहीं छोड़ता। 'व्यवस्थित' के जाल में आने के बाद चारों तरफ से चिमटे आते हैं, सरकमस्टेन्सेस के चिमटे आते हैं। मन को जो अच्छा लगता है, उसमें उसे रुचि हो जाती है। खुद को अच्छा नहीं लगता, परन्तु मन को तो अच्छा लगता है न? इसलिए उसमें खुद तन्मयाकार हो जाता है। मन का स्वभाव कैसा है कि जब तक उसका मनचाहा नहीं हो, तब तक संतोष नहीं होता और मनचाहा हो तो संतोष होता है। संसार के एक्जिबिशन में प्रवेश करने जैसा ही नहीं है!!
प्रश्नकर्ता : फल तो अनुभव में आता है न उसमें?
दादाश्री : अनुभव में नहीं आए तो काम का ही नहीं। हम शक्कर मुँह में रखें तो अनुभव होना ही चाहिए। शक्कर मीठी है' ऐसा पढते रहें तो अनुभव नहीं होता। मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ' ऐसे बोलें तो कुछ भी नहीं होता। आत्मा का अनुभव प्रतिक्षण हो तभी काम का।