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(२९) चिंता: समता
वह भूतकाल है। भूतकाल को तो कोई मूर्ख भी याद नहीं करता और आनेवाला कल तो 'व्यवस्थित' के हाथ में है। इसलिए वर्तमान में रहो, सिर्फ वर्तमानकाल में ही रहो।
परसत्ता अधिकार, चिंता को जन्म दे
जिस घर में चिंता होती है, वहाँ पर सभी मुश्किलें आती ही रहती है। चिंता अहंकार है। यह सब चलाने की आपके हाथ में सत्ता है कुछ? जिसकी सत्ता है उसकी सत्ता यदि हम ले लें तो फिर वह हाथ नहीं डालेगा। इसलिए आप उस सत्ता पर छोड़ दो।
प्रश्नकर्ता: चिंता नहीं हो उसके लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : वापिस लौटना चाहिए, या फिर इगोइज़म खत्म करना चाहिए। यह तो 'ज्ञानी पुरुष' हो और ज्ञान दें तो चिंता रहे ही नहीं। यह चिंता करने का फल क्या है?
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प्रश्नकर्ता: वह मालूम नहीं।
दादाश्री : चिंता का फल जानवरगति है। चिंता, एबोव नोर्मल इगोइज़म है।
प्रश्नकर्ता: मुझे चिंता तो बहुत रहती है।
दादाश्री : आपको थोड़ी चिंता है, इसलिए तो आपको यहाँ आने का समय भी मिला। इन सेठ लोगों को तो संडास जाने का भी समय नहीं मिलता। इतनी सारी चिंताएँ हो गई हैं। दो मिलें हो गई, अब तीसरी बनानी है! लोभ, लोभ और लोभ । आपने कब तक इकट्ठा करने का नक्की किया है? दस लाख रुपये ?
प्रश्नकर्ता: जितना अधिक मिले उतना अच्छा।
दादाश्री : अभी तक आपका पूरा ही नहीं हुआ? ये काले बाल बदलकर सफेद हो गए, फिर भी पूरा नहीं होता? इसलिए यह दग़ा है। अब चुपचाप उसका पीछा छोड़ दो और चैन से चाय-नाश्ता करो, भोजन
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करो और फिर कामधंधा करो!
आप्तवाणी-४
चिंता, सफलता का अवरोधक
यह चिंता करने से हर एक काम देर से होता है। यहाँ बाहर निकलकर सुबह कब होगी, कब होगी ऐसे चिंता करते हुए पूरी रात बैठे रहो तो सुबह जल्दी हो जाएगी? बल्कि देर से होगी। उसके बदले तो ओढ़कर सो जा न । चिंता से काम आगे खिसक जाता है। सब्ज़ी मिलेगी या नहीं मिलेगी, उसकी चिंता करे तो वह भी नहीं मिलेगी।
जिसका उपाय नहीं उसकी चिंता क्या? मरण का उपाय नहीं है, इसलिए उसकी कोई चिंता करता है?
चिंता हो तब आप क्या करते हो?
प्रश्नकर्ता: ईश्वर स्मरण ।
दादाश्री : आपका कोई मित्र आपकी बिना पहचानवाला है? प्रश्नकर्ता: नहीं, परन्तु पहचान के बिना तो मित्रता किस तरह
होगी?
दादाश्री : वैसे ही बिना पहचाने भगवान का स्मरण किस तरह हो सकता है?
चिंता होने लगे तो समझ लो कि कार्य बिगड़नेवाला है और चिंता नहीं हो तो समझना कि कार्य बिगड़नेवाला नहीं है। चिंता कार्य में अवरोधक है। चिंता से व्यापार बिगड़ जाता है।
प्रश्नकर्ता : यह चिंता किसलिए होती है?
दादाश्री : आरोपित भाव है कि, 'मैं चंदूभाई हूँ', इसलिए। 'रियल' स्वरूप को नहीं जानते हैं, इसलिए चिंता कब होती है? मन में विचार आएँ और उनमें तन्मयाकार हो जाए तब विचार जड़ हैं और खुद चेतन है। जड़-चेतन का मिक्सचर हो जाए, तब चिंता होती है। चिंता मन का