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आप्तवाणी-४
में भी बंधन है, वहाँ भी पसंद नहीं हो तो भी रहना पड़ता है। वहाँ पर पत्नी के साथ में अच्छा नहीं लगता हो फिर भी जीना पड़ता है। क्योंकि उनका आयुष्य कम नहीं हो सकता।
लाखों जन्मों से इसमें से छूटने की कामना हर एक के बुद्धि के आशय में होती ही है पर छूटा नहीं जा सकता। धक्के बहुत खाता है, छटपटाता है, फिर भी नहीं मिलता। पत्नी और बच्चों के बिना रहकर देखता है, वहाँ भी कुछ नहीं होता, इसलिए वापिस दसरे जन्म में संसारी बनता है। सभी प्रकार के विकल्प करके देख लिए। निर्विकल्प प्राप्त करने के लिए जो कुछ करते हैं, वे सभी विकल्प के विकल्प हैं। ये जंजाल छूट सके वैसा नहीं है। गृहस्थी का जंजाल छूटे तो त्यागी का जंजाल चिपटता है, वहाँ भी संसार तो है ही न!
विनाशी चीज़ नहीं चाहिए
(२३) मोक्ष प्राप्ति, ध्येय
१८९ दादाश्री : इस बखेड़े में कौन आए? यह तो बहुत त्रासदायक वस्तु है। इस संसार में तो कितनी अधिक परवशता है? यह तो शराब पीकर खुद अपने आप को सुखी मानना, उसके जैसा है। यह संसार तो भूत चिपट गया हो, वैसा है। ये मन-वचन-काया के तीन भूत चिपटे हुए हैं ! वह तो दाढ़ दु:खे तब पता चलेगा। राजा को भी दाढ़ दुःखे तब राज्य प्यारा लगता है या रानियाँ प्यारी लगती हैं?
प्रश्नकर्ता : कोई प्यारा नहीं लगता।
दादाश्री : यह तो भयंकर आफत है! और मोक्ष तो स्वाभाविक सुख है।
प्रश्नकर्ता : संसार के व्यवहार में रहने के बावजूद मनुष्य को मोक्ष का अनुभव हो सकता है?
दादाश्री : अँधे मनुष्य को एक खंभे से कसकर खूब लपेटकर बाँध दिया हो, फिर उसे छुए बिना पीछे से धीरे से एक डोरी ब्लेड से काट लें तो उसे पता चलेगा या नहीं चलेगा?
प्रश्नकर्ता : चलेगा।
दादाश्री : इस भाग में से बंधन टूट गया है ऐसा उसे पता चल जाता है। उसी प्रकार मोक्ष का अनुभव होता है!
मोक्ष अर्थात् मुक्तभाव, बंधन नहीं लगता। पुलिसवाला पकड़े तब भी बंधन नहीं लगता।
स्वर्ग, फिर भी बंधन प्रश्नकर्ता : ऐसा कहते हैं न, मोक्ष अर्थात् स्वर्ग मिलता है, वैकुंठ मिलता है या भगवान में मिल जाना, वह क्या है?
दादाश्री : स्वर्ग-वर्ग कुछ भी नहीं होता वहाँ तो। स्वर्ग यानी कि भौतिक सुख भोगने का स्थान और नर्क में भौतिक दुःख भोगने पड़ते हैं। और इस मध्यलोक में सुख और दुःख दोनों का मिक्सचर होता है। स्वर्ग
मुक्ति के लिए क्या करना चाहिए?
'ज्ञानी' के अलावा हमें दूसरा कुछ भी नहीं चाहिए, वह भाव रखना। 'इस जगत् की कोई भी विनाशी चीज़ मुझे नहीं चाहिए।' ऐसा पाँच बार सुबह में बोलकर उठे और उसे सिन्सियर रहे उसे कोई कर्म नहीं बंधता। परन्तु 'मुझे' अर्थात् कौन? वह निश्चित करके बोलना चाहिए। मैं शुद्धात्मा हूँ' और जो चाहिए वह इस देह को चाहिए, 'चंदूलाल' को चाहिए। और वह तो अधिक होता ही नहीं न? 'व्यवस्थित' में जो हो वह ठीक और नहीं हो तो वह नहीं, परन्तु 'मुझे कुछ भी नहीं चाहिए', वह भाव पक्का होना चाहिए। और उसके प्रति सिन्सियर रहें तो कुछ भी दखल हो वैसा नहीं है। 'व्यवस्थित' में जो मिलनेवाला हो उतना ही मिलनेवाला है, उसमें कुछ बदलाव नहीं होता। बल्कि लाभ यह है कि चिंता और बेचैनी कम हो जाती है। ये दोनों द्रव्य अलग हैं। उनका अलग अनुभव ही करना है। दूसरा कुछ भी करना नहीं है। भीतर बुद्धि दखल करे या विचार में एकाकार होकर उलझे तो भी वह 'हम' नहीं करते हैं। 'आप''आपका' भाग अलग रखो।'आप' और 'चंदूलाल' पड़ोसी की तरह रहो तो कुछ भी असर नहीं