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________________ (२१) तपश्चर्या का हेतु १६७ १६८ आप्तवाणी-४ कर्म को। लोगों ने वस्तुएँ बहुत त्याग दी हैं, परन्तु वस्तु तो पूरी खड़ी ही रही है। क्योंकि वस्तु की मूर्छा नहीं गई। स्वरूपज्ञान की प्राप्ति के बाद आपको मूर्छा नहीं रहती, क्योंकि आप शुद्धात्मा हए हो। शद्धात्मा हो गए इसलिए सर्व मूर्छा गई। आपके मोहनीय कर्म का संपूर्ण नाश हो गया है, नहीं तो शुद्धात्मा का लक्ष्य बैठता नहीं। मोहनीय कर्म का छींटा भी हो, तब तक शुद्धात्मा का लक्ष्य नहीं बैठता है। शुद्धात्मा का लक्ष्य प्रश्नकर्ता : दादा, शुद्धात्मा का लक्ष्य बैठे यानी वह अनुभव में आए तब लक्ष्य बैठा कहलाएगा? दादाश्री : रात को आप सो गए हों और जागो, तब सबसे पहले अपने आप क्या लक्ष्य में आता है आपको? प्रश्नकर्ता : 'मैं शुद्धात्मा हूँ' वही आता है। दादाश्री : अपने आप 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा आए तो लक्ष्य बैठ गया है ऐसा समझना। उसे याद नहीं करना पडता। याद करें तो वह तो याददाश्त नहीं हो तो याद नहीं भी आए। लक्ष्य, वही जागृति है। और हम लोगों को तो अनुभव भी है। अनुभव, लक्ष्य, प्रतीति - ये तीनों ही हमें हैं। आत्मा का अनुभव हो जाए, उसके बाद ही समभाव से क्रिया होती है, प्रवर्तन होता है। वे सभी कर्मेन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन, उन्हें एक दिन खुराक नहीं देनी है, कान से सुना तो जाएगा पर हमें सुनने नहीं जाना है, आँख से दिखेगा, पर हमें उठकर देखने नहीं जाना है। पूरे दिन कुछ भी नहीं करना है, मन को बिल्कुल खुराक नहीं देनी है। प्रश्नकर्ता : हिल-डुल सकते हैं? दादाश्री : नहीं, कुछ भी नहीं कर सकते। प्रश्नकर्ता : सो सकते हैं? दादाश्री : लेट सकते हैं। प्रश्नकर्ता : नींद आए तो? दादाश्री : तो वापिस बैठ जाना। चौबीस घंटे निरंतर जागृति में निकालने हैं। ऐसी एक ही ग्यारस करो तो आत्मा जुदा ही पड़ जाएगा। प्रश्नकर्ता : इसका पालन करना कठिन है। दादाश्री : आप निश्चय करोगे तो उसका पालन होगा ही। आपका निश्चय और हमारा वचनबल हो तो वह पाला ही जा सकेगा! प्रश्नकर्ता: उपवास करना हो तो आपकी आज्ञा लेकर करना चाहिए क्या? दादाश्री : हम किसीको ऐसी आज्ञा नहीं देते हैं कि तू उपवास कर। परन्तु आपको उपवास करना हो तो उसका निश्चय करके हमारे पास से आज्ञा ले जाना। आज्ञा से, वचनबल से आपका काम पूरा होता है। प्रश्नकर्ता : कभी 'दादा' यहाँ मुंबई में उपस्थित नहीं हों और उपवास करने की इच्छा हो तो आपके चित्रपट के पास से आज्ञा ली जा सकती है? 'दादाई' ग्यारस यह ग्यारस करते हैं, वह भी साइन्टिफिक है। ये 'दादा' की ग्यारस ज़िन्दगी में एक बार करे तो उसका कल्याण हो जाए ऐसा है, एक बार 'दादा' के नाम पर होना चाहिए। प्रश्नकर्ता : दादा की ग्यारस किस तरह करनी चाहिए? दादाश्री : पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन, उन्हें निराहारी रखें। आँख, कान, मुंह, स्पर्श वे ज्ञानेन्द्रियाँ और हाथ-पैर, संडास दादाश्री : हाँ, आज्ञा लेकर करो तो हर्ज नहीं है। आप बुलाओ तो उपस्थित हो जाऊँ ऐसा हूँ। पर आपको बुलाना नहीं आता है न?
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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