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अहिंसा
अहिंसा
संपूर्ण अहिंसा, वहाँ प्रकटे केवलज्ञान इसलिए, धर्म कौन सा ऊँचा कि जहाँ पर सूक्ष्म भेद से अहिंसा समझ में आई हुई हो। संपूर्ण अहिंसा, वह केवलज्ञान ! इसलिए हिंसा बंद हो तो समझना कि यहाँ सच्चा धर्म है।
हिंसा बिना का जगत् है ही नहीं। जगत् ही पूरा हिंसामय है। जब आप खुद ही अहिंसावाले हो जाओगे, तो जगत् अहिंसावाला होगा और अहिंसा के साम्राज्य के बिना कभी भी केवलज्ञान नहीं होता, जो जागृति है वह पूरी आएगी नहीं। हिंसा नाम मात्र की भी नहीं होनी चाहिए। हिंसा किसकी करता है? ये सब परमात्मा ही हैं. सभी जीव मात्र में परमात्मा ही हैं। किसकी हिंसा करोगे? किसे दुख दोगे?
चरम अहिंसा का विज्ञान जब तक आपको लगता है कि 'मैं फूल तोड़ता हूँ, मुझे हिंसा लगती है', तब तक हिंसा आपको लगेगी और ऐसा नहीं समझते, उसे भी हिंसा लगती है। पर जानकर जो तोड़ते हैं फिर भी खुद स्वभाव में आ चुके हैं, उन्हें हिंसा लगती नहीं है।
क्योंकि ऐसा है न, भरत राजा को तेरह सौ रानियों के साथ, लड़ाई लड़ते हुए भी ज्ञान रहा था। तब वह अध्यात्म कैसा होगा? और इन लोगों को एक रानी हो, तब भी नहीं रहता। भरत राजा ने ऋषभदेव भगवान से कहा कि 'भगवान यह लड़ाईयाँ लड़ता हूँ और कितने ही जीवों की हिंसा होती है, और ये तो मनुष्यों की हिंसाएँ होती हैं, दूसरे छोटे जीवों की हिंसा हुई हो तो ठीक है पर यह तो मनुष्य हिंसा! और हम लड़ाईयाँ लड़ते हैं इसलिए होती है न!' तब भगवान ने कहा कि, 'यह सब तेरा हिसाब है
और वह चुकाना है।' तब भरत राजा कहते हैं, 'परन्तु मुझे भी मोक्ष में जाना है, मुझे कोई इस तरह बैठे रहना नहीं है।' तब भगवान कहते हैं कि 'हम तुझे अक्रम विज्ञान देते हैं, वह तुझे मोक्ष में ले जाएगा। इसलिए स्त्रियों के साथ में रहने के बावजूद, लड़ाईयाँ लड़ने के बावजूद कुछ छुएगा नहीं। निर्लेप रह सके, असंग रह सकें ऐसा ज्ञान देते हैं।'
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शंका, तब तक दोष 'इस' ज्ञान के बाद खुद शुद्धात्मा हो गया। अब दरअसल शुद्धात्मा समझ में आए तो किसी भी प्रकार की हिंसा या कुछ भी अशुभ करे, वह खुद के गुणधर्म में है ही नहीं। उसे शुद्धात्मा का लक्ष पूरापूरा है। परन्तु जब तक अभी भी खुद को शंका होती है कि मुझे दोष बैठा होगा! जीव मुझसे कुचला गया और मुझे दोष बैठा है, ऐसी शंका पड़ती है, तब तक सुबह पहले खुद निश्चय करके निकलना, 'किसी जीव को मन-वचन-काया से किंचित् मात्र दुख न हो', ऐसा पाँच बार बोलकर निकलो, ऐसा 'हमें' 'चंदूभाई' से बुलवाना है। अतः हमें ऐसा ज़रा कहना है कि चंदूभाई, बोलो, सुबह पहले उठते ही, 'मन-वचन-काया से किसी भी जीव को किंचित् मात्र दुख न हो, वह हमारी दृढ़ प्रतिज्ञा है' और ऐसा 'दादा भगवान' की साक्षी में बोलकर निकले कि फिर सारी जवाबदारी 'दादा भगवान' की।
और यदि शंका न पड़ती हो तो उसे कोई हर्ज नहीं। हमें शंका पड़ती नहीं और आपको शंका पड़ती है, वह स्वाभाविक है। क्योंकि आपको तो यह दिया हुआ ज्ञान है। एक मनुष्य ने लक्ष्मी खुद कमाई और इकट्ठी की हुई हो और एक मनुष्य को लक्ष्मी दी हुई हो, उन दोनों के व्यवहार में बहुत फर्क होता है।
असल में ज्ञानी पुरुष ने जो आत्मा जाना है न, वह आत्मा तो किसी को किंचित् मात्र भी दुख न दे, ऐसा है और कोई उसे किंचित् मात्र दुख न दे, ऐसा वह आत्मा है। असल में मूल आत्मा वैसा है।
वेदक-निर्वेदक-स्वसंवेदक एक व्यक्ति मुझे पूछ रहा था। वह मुझे कहता है, 'ये मच्छर काटते हैं, वह किस तरह पुसाए?' तब मैंने कहा, 'ध्यान में बैठना। मच्छर काटे तो देखना।' तब वह कहता है, 'वह तो सहन नहीं होता।' तब मैंने कहा, 'ऐसा बोलना कि मैं निर्वेद हूँ। अब वेदक स्वभाव मेरा नहीं, मैं तो निर्वेद हूँ। इससे थोड़े अंशों में तू वापिस तेरे होम डिपार्टमेन्ट की तरफ आएगा। ऐसे करते-करते ऐसे सौ-दो सौ बार मच्छर तुझे काटेंगे, ऐसे करते-करते