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अहिंसा
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का घातक ही है। उसमें भी परस्त्री, वह तो सबसे बड़ा जोखिम है। परस्त्री हो तो नर्क का अधिकारी ही हो गया। बस, दूसरा कुछ भी उसे ढूँढना नहीं और मनुष्यपन फिर आएगा ऐसी आशा रखनी ही नहीं। यही सबसे बड़ा जोखिम है। परपुरुष और परस्त्री नर्क में ले जानेवाले हैं।
और खुद के घर पर भी नियम तो होना चाहिए न? यह तो ऐसा हैन खुद के हक़ की स्त्री के साथ का विषय अनुचित नहीं है, फिर भी साथ-साथ इतना समझना पड़ेगा कि इसमें बहुत सारे जर्म्स (जीव) मर जाते हैं। इसलिए अकारण तो ऐसा नहीं ही होना चाहिए न? कारण हो तो बात अलग है। वीर्य में जर्म्स ही होते हैं और वे मानवबीज के होते हैं, इसलिए हो सके तब तक इसमें ध्यान रखना। यह हम आपको संक्षेप में कह रहे हैं। बाकी, इसका पार आए नहीं न!
मन से पर अहिंसा
दूसरी झूठी अहिंसा मानें, उसका अर्थ क्या है फिर ? अहिंसा मतलब किसी के लिए खराब विचार भी न आए। वह अहिंसा कहलाता है। दुश्मन के लिए भी खराब विचार न आए। दुश्मन के लिए भी कैसे उसका कल्याण हो, ऐसा विचार आए । खराब विचार आना प्रकृतिगुण है, पर उसे पलटना अपना पुरुषार्थ है। आप समझ गए या नहीं समझे यह पुरुषार्थ की बात?
अहिंसक भाववाला तीर मारे तो ज़रा भी खून न निकले और हिंसक भाववाला फूल डाले तब भी दूसरे को खून निकलता है। तीर और फूल इतने इफेक्टिव नहीं हैं, जितनी इफेक्टिव भावना है। इसलिए हमारे एकएक शब्द में 'किसी को दुख न हो, किसी भी जीव मात्र को दुख न हो' ऐसा हमें निरंतर भाव रहा करता है। जगत् के जीव मात्र को इस मनवचन काया से किंचित् मात्र भी दुख न हो, उस भावना से ही 'हमारी' वाणी निकल रही होती है। वस्तु काम नहीं करती, तीर काम नहीं करता, फूल काम नहीं करते, पर भाव काम करते हैं।
यह 'अक्रम विज्ञान' तो क्या कहता है? मन से भी हथियार नहीं उठाना है, तो फिर लकड़ी किस तरह उठाई जाए? इस दुनिया में कोई
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भी जीव, छोटे से छोटे जीव के लिए मैंने मन से हथियार उठाया नहीं कभी भी, तो फिर दूसरा तो उठाऊँ किस तरह? वाणी ज़रा सख्त निकल जाती है कभी, सालभर में एकाध दिन थोड़ी कड़क वाणी निकल जाती है। यह जैसे खादी और रेशम में फर्क होता है न, खादी कैसी होती है? वैसी थोड़ी सख्त वाणी निकल जाती है कभी। वह भी पूरे साल में एकाध दिन ही । बाकी वाणी से भी अटेक नहीं किया। मन से उठाया नहीं कभी भी !
छोटे से छोटा जीव होगा, पर मन से हथियार उठाया नहीं। इस वर्ल्ड में कोई भी जीव, एक छोटा जीव हो, एक बिच्छू अभी काटकर गया हो, तब भी उस पर हथियार हमने उठाया नहीं ! वह तो उसका फ़र्ज़ निभा कर जाता है। वह फ़र्ज़ नहीं निभाए तो हमारा छुटकारा नहीं हो। इसलिए किसी भी जीव के साथ मन बिगाड़ा नहीं कभी भी, उसका विश्वास है ! अतः मानसिक हिंसा कभी भी नहीं की। नहीं तो मन का स्वभाव है, कुछ दिए बगैर रहता नहीं ।
प्रश्नकर्ता: आप तो समझ गए होंगे कि इस हथियार का काम ही नहीं।
दादाश्री : हाँ, हथियार काम का ही नहीं। इस हथियार की ज़रूरत है, ऐसा विचार ही नहीं आया। हमने तलवार जब से जमीन पर रखी तब से उठाई नहीं। सामनेवाला शस्त्रधारी हो, तब भी हम शस्त्र धारण नहीं करते। और अंत में वही रास्ता लेना पड़ेगा। जिसे इस जगत् में से भाग छूटना है, अनुकूल आता नहीं, उसे अंत में यही रास्ता लेना पड़ेगा, दूसरा रास्ता नहीं है।
इसलिए एक अहिंसा सिद्ध कर ले, तो बहुत हो गया। संपूर्ण अहिंसा सिद्ध करे, तो वहाँ बाघ और बकरी दोनों एक साथ पानी पीएँ !
प्रश्नकर्ता: वह तो तीर्थंकरों में उस तरह का होता था न?
दादाश्री : हाँ। और उन तीर्थंकरों की बात कहाँ हो ! कहाँ वे पुरुष ! आज वर्ल्ड तीर्थंकरों के एक वाक्य को यदि समझा होता, एक ही वाक्य,