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अहिंसा
अहिंसा
दादाश्री : अहिंसक किसे कहते हैं? कि किसी की किसी भी चीज़ में हाथ डाले नहीं, वह अहिंसक। एक को कहेगा कि इसे अधिक दो, क्योंकि दीन-हीन है। भले दीन-हीन हो, फिर भी उसे अधिक दो। इसलिए इस तरफ के पक्षवाले को बुरा लगता है। इसलिए उसे रीस चढ़ती है। वह हिंसा कहलाती है। उसमें पड़ना ही नहीं। ऐसा न्याय ही नहीं करना चाहिए। अहिंसक जो है वे न्याय ही नहीं करते। न्याय करते हैं, वहाँ हिंसा है।
करनी चाहिए, ऐसी भावना हमें विकसित करनी चाहिए और अपने अभिप्राय दूसरों को समझाने चाहिए। जितना अपने से हो सके उतना करना चाहिए। उसके लिए कोई दूसरे के साथ लड़ मरने की ज़रूरत नहीं है। कोई कहे कि, 'हमारे धर्म में कहा है कि हमें माँसाहार करना है।' अपने धर्म ने मना किया हो, उस कारण से झगड़ा करने की ज़रूरत नहीं है। हमें भावना विकसित करके तैयार रखनी, फिर जैसा भावना में होगा वैसी संस्कृति चलेगी।
और विश्व समष्टि का कल्याण करने की भावना, वह तो आपको सारे दिन, रात-दिन रहती है न?! हाँ, तो उस अनुसार रहना चाहिए।
बाकी, वह तो जो यदि आप संपूर्ण अहिंसा पालो तो आप पर कोई गोली छोड़ सके ऐसा नहीं है। अब संपूर्ण अहिंसा मतलब क्या? पक्षपातवाला एक शब्द मुँह से बोलना भी नहीं चाहिए और बोलो तो अमुक ही शब्द बोलने चाहिए। दूसरे शब्द नहीं बोलने चाहिए। किन्हीं दो पार्टियों के बीच में पड़ना नहीं चाहिए। दो पार्टियों के बीच पड़ें तो एक की हिंसा होती है थोड़ी-बहुत!
जीवों की बलि
प्रश्नकर्ता : कुछ मंदिर में जीवों की बलि दी जाती है, वह पाप है या पुण्य है?
दादाश्री : उस बलि चढ़ानेवाले को हम पूछे कि तू क्या मानता है इसमें? तब वह कहता है, 'मैं पुण्य करता हूँ।' बकरे से पूछे कि तू क्या मानता है? तब वह कहता है, 'यह खनी व्यक्ति है।' उन देवता को पूछे तो वे कहते हैं, 'वे धरते हैं तो हमसे ना नहीं कहा जा सकता। मैं तो कुछ लेता नहीं। ये लोग पैरों से छुआकर ले जाते हैं। इसलिए पापपुण्य की बात तो जाने दो। बाकी, यह जो कुछ करते हो, वह सब खुद की जोखिमदारी है। इसलिए समझकर करना। फिर चाहे जो चढ़ाओ, कौन मना करता है आपको? परन्तु चढाते समय ख्याल में रखना कि होल एन्ड सोल रिस्पोन्सिबिलिटी अपनी ही है, दूसरे किसी की नहीं।
अहिंसा की अनुमोदना, भावना-प्रार्थना से अब इन गूंगे प्राणीयों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, गौ हत्या नहीं
प्रश्नकर्ता : उस बारे में हम प्रार्थना तो कर सकते हैं न?
दादाश्री : हाँ, हाँ, प्रार्थना करनी, ऐसी भावना करनी, उसकी अनुमोदना करनी चाहिए। कोई व्यक्ति यदि नहीं समझता हो तो हमें उसे समझाना चाहिए। बाकी यह हिंसा तो आज से नहीं. वह तो पहले से चाल ही है। यह जगत् एक रंग का नहीं है।
अब महान संत तुलसीदास थे न, तो उन्होंने कबीरसाहब की ख्याति बहुत सुनी थी। महान संत के रूप में ख्याति फैली हुई थी इसलिए तुलसीदास ने निश्चित किया कि मुझे उनके दर्शन करने जाना चाहिए। इसलिए तुलसीदास वहाँ से फिर दिल्ली आए। फिर वहाँ पर किसी से पूछा कि भाई, कबीरसाहब का घर कहाँ पर है? तब कहे, 'कबीरसाहब तो वो बुनकर है उनकी बात कर रहे हो?' उन्होंने कहा, 'हाँ।' तब उसने कहा, 'वह तो वहाँ झोंपड़ी बनाई है, वहाँ से कसाईबाड़े में होकर जाओ।' तब फिर तुलसीदास ब्राह्मण चोक्खे व्यक्ति, वे कसाईबाडे में गए। इस तरफ बँधा हुआ था बकरा, इस तरफ मुरगा बँधा हआ था। वे मुश्किल में पड गए। वे इस तरफ ऐसे देखें और फिर ऐसे थूकें। ऐसे करते-करते वहाँ पहुँचे। तो मुश्किल नहीं पड़े! ये तुलसीदास प्रेक्टिस में नहीं लाए थे क्योंकि हमेशा हर एक वस्तु प्रेक्टिस में लानी चाहिए। इसलिए यह फँसाव हुआ, तब फिर तुलसीदास तो वहाँ जाकर घर में बैठे। तब कहते हैं कि