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अहिंसा
चाहिए कि यह कहाँ से आया मेरे हिस्से में?
प्रश्नकर्ता : समझा।
दादाश्री : इन किसानों से अधिक तो व्यापारी पाप करते हैं और व्यापारियों से अधिक ये घर बैठे रहते हैं, वे बहुत पाप करते हैं मुए। पाप तो मन से होता है, शरीर से पाप होता नहीं। आपको बात समझनी है। इन दूसरे लोगों को समझने की ज़रूरत नहीं है। आपको अपने लायक समझ लेनी है। दूसरे लोग जो समझते हैं वही ठीक है।
प्रश्नकर्ता : कपास में दवाई छिड़कनी पड़ती है तब क्या करें? उसमें हिंसा तो होती ही है न?
दादाश्री : आखिर में जो-जो कार्य करने पड़ते हैं वे प्रतिक्रमण करने की शर्त पर करने चाहिए।
आपको इस संसार व्यवहार में किस तरह चलना वह नहीं आता। वह हम आपको सिखलाते हैं। उससे नये पाप बँधेगे नहीं।
खेत में तो खेतीबाड़ी करें, इसलिए पाप बँधते ही हैं। पर वे बँधते हैं उसके साथ हम आपको दवाई देते हैं कि ऐसा बोलना। उससे पाप कम हो जाएँगे। हम पाप धोने की दवाई देते हैं। दवाई नहीं चाहिए? खेत में गए इसलिए जोतो-करो, उसमें पाप तो होंगे ही। अंदर कितने ही जीव मारे जाते हैं। यह गन्ना काटते हो तो पाप नहीं कहलाता? वे जीव ही हैं न बेचारे? पर उसका क्या करना वह हम आपको समझाते हैं, जिससे आपको दोष कम लगे और भौतिक सुख अच्छी तरह भोगो।
खेतीबाड़ी में जीवजंतु मरे, उसका दोष तो लगता है न? इसलिए खेतीबाड़ीवालों को हररोज़ पाँच-दस मिनट भगवान के पास प्रार्थना करनी चाहिए कि यह दोष हुआ उसकी माफ़ी माँगता हूँ। किसान हो उसे कहें कि तू यह काम करता है, उसमें जीव मरते हैं। उसका इस तरह से प्रतिक्रमण करना। तू जो गलत करता है, उसमें मुझे आपत्ति नहीं। पर उसका तू इस तरह प्रतिक्रमण कर।
अहिंसा स्वरूपज्ञानी को पुण्य-पाप छूते नहीं प्रश्नकर्ता : जंतुनाशक दवाई हम बनाते हैं और फिर वे खेत में छिड़कते हैं, उसमें कितने ही जीव मर जाते हैं। तो फिर उसमें पाप लगता है या नहीं लगता? फिर वह दवाई बनानी, वह पाप कहलाएगा या नहीं?
दादाश्री : हाँ। क्योंकि वह दवाई जीवों को मारने के उद्देश्य से ही बनती है। दवाई लाते हैं, वह भी जीवों को मारने के उद्देश्य से ही लाते हैं और दवाई डालते हैं वह जीवों को मारने के उद्देश्य से ही डालते हैं। इसलिए सारा पाप ही है।
प्रश्नकर्ता : पर उसमें हेतु ऐसा है कि फसल अधिक अच्छी हो, अधिक फसल हो।
दादाश्री : ऐसा है, यह फसल किस आधार पर होती है, किसान किस आधार पर जोतते हैं, किस आधार पर बुआई करते हैं, वह सब किसके आधार पर चलता है, वह मैं जानता हूँ। यह सब नहीं जानने से लोगों के मन में ऐसा होता है कि 'यह तो मेरे आधार पर चल रहा था। यह तो मैंने दवाई छिड़की इसलिए बचा।' अब यह आधार देना भयंकर पाप है। और निराधार हुआ कि वह सब गिर जाता है।
प्रश्नकर्ता : तब फिर पुरुषार्थ कहाँ गया?
दादाश्री : पुरुषार्थ तो, क्या होता है उसे देखना-जानना वही पुरुषार्थ है, दूसरा कुछ नहीं। दूसरा, मन के विचार आते हैं वे 'फाइल' हैं। उन्हें तो आपको देखना है। दूसरे बखेड़े में उतरना नहीं है।
प्रश्नकर्ता : तो फिर यह खेती करनी चाहिए या नहीं करनी चाहिए? दादाश्री : खेती में आपत्ति नहीं है। प्रश्नकर्ता : पर उस पाप का भार बढ़े उसका क्या?
दादाश्री : ऐसा है, इस ज्ञान के बाद आपको तो पाप अब छूता नहीं न ! आप 'खुद' अब चंदूभाई नहीं रहे। आप चंदूभाई हो तब तक पाप