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अहिंसा
अहिंसा
दादाश्री : उनके हिस्से में आता है, प्रेरणा दे उसे साठ प्रतिशत और करनेवाले को चालीस प्रतिशत !
प्रश्नकर्ता : यह कोई भी वस्तु जो हो रही है वह व्यवस्थित के नियम के अनुसार वह ठीक नहीं मानी जाती? वे निमित्त बने और उन्हें करने का आया। तो फिर उनके हिस्से में पाप क्यों रहे?
दादाश्री : पाप तो इसलिए ही होता है कि ऐसा काम अपने हिस्से में नहीं होना चाहिए, फिर भी अपने हिस्से में ऐसा आया? बकरे काटने का भाग्य में आए तो अच्छा लगेगा?
प्रश्नकर्ता : अच्छा तो नहीं लगेगा। पर दादा, करना ही पड़े ऐसा हो तो? अनिवार्य रूप से करना ही पड़े, छुटकारा ही न हो, तब क्या?
दादाश्री : करना पड़े तो.... पछतावे सहित करना पड़े, तब ही काम का है। एक घंटे पछतावा करना पड़ेगा रोज़, एक कीटक बना दे, देखें? फ़ॉरेन के साइन्टिस्ट बना देंगे एक कीटक?
प्रश्नकर्ता : ना, वह तो संभव ही नहीं न दादा! दादाश्री : तो फिर बना नहीं सकते तो फिर मार किस तरह सकते
अलग हिसाब पाप के..... प्रश्नकर्ता : एक व्यक्ति ने घास तोड़ी, दूसरे व्यक्ति ने पेड़ काटा, तीसरे व्यक्ति ने मच्छर मारा, चौथे व्यक्ति ने हाथी मारा, पाँचवे व्यक्ति ने मनुष्य को मारा। अब इन सबमें जीवहत्या तो हुई ही पर उसके पाप का फल अलग-अलग है न?
दादाश्री : अलग-अलग। ऐसा है न, तिनको की कोई क़ीमत ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : पर उसमें आत्मा तो है न?
दादाश्री : वह तो है। पर वह खुद जो भोगता है न, वह बेभानअवस्था में भोगता है न!
प्रश्नकर्ता : मतलब सामनेवाले के भुगतान के अनुसार पाप है?
दादाश्री : सामनेवाले का दुःख कितना है, उसके अनुसार हमें पाप लगता है।
प्रश्नकर्ता : बंगले के आसपास खुद अपना गार्डन बनाता है।
दादाश्री : उसमें आपत्ति नहीं है। उतना टाइम अपना बेकार जाता है, इसलिए मना किया है। उन जीवों के लिए मना नहीं किया।
प्रश्नकर्ता : पर हम निमित्त बनें कहलाते हैं न।
दादाश्री : निमित्त में आपत्ति नहीं है। जगत् निमित्तरूप ही है। उन एकेन्द्रिय जीवों को कोई दुःख नहीं देते हम। वह सब चलता ही रहता है। एकेन्द्रिय जीव की जिनकी चिंता करनी नहीं है, उनकी उलझन डाल दी। पर जान-बूझकर रास्ते चलते पेड़ के पत्ते बिना काम के तोड़ना मत, अनर्थकारी क्रियाएँ मत करना। और दातुन की ज़रूरत हो तो आप पेड़ से कहना कि, 'मुझे एक टुकड़ा चाहिए।' ऐसे माँग लेना।
प्रश्नकर्ता : एक व्यक्ति फुटपाथ पर चल रहा हो, दूसरा व्यक्ति
हैं?
उन लोगों को सबको प्रार्थना करनी चाहिए भगवान से, कि हमारे हिस्से में यह कहाँ से आया, खेतीबाड़ी का धंधा कहाँ से आया.... खेतीबाड़ी में तो निरी हिंसा ही है पर ऐसी नहीं, यह तो खुली हिंसा
प्रश्नकर्ता : बहुत अच्छा नमूना लेकर आएँ मारकर, तब वापिस खुश होते हैं कि मैं कैसा मारकर लाया, कितना अच्छा नमूना मिला। उसके अधिक मार्क्स मिलते हैं। कितना अच्छा मैंने पकड़ा!
दादाश्री : खुश होता है न! वहाँ पर उतना ही कर्म लगेगा, उसका फल आएगा वापिस, जितने खुश हुए उतनी ही कड़वाहट भोगनी पड़ेगी।