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पर्वतीय नदियाँ कल-कल शब्द करती हुई प्रवाहित हैं, वे निर्भय होकर उसकी गोद में लोट-पोट किया करती हैं, निश्चय ही वे रैवतक की कन्याएँ हैं। आज वे अपने पति समुद्र से मिलने जा रही हैं । इस कारण रैवतक चिड़ियों के करुण स्वर के द्वारा, ज्ञात होता है कि, वह प्रेम के कारण रो रहा है । कन्या के पतिगृह जाने के समय पिता का हृदय द्रवित हो उठता है । “पीडयन्ते गृहिणः कथं नु तनयाविश्लेषदुःखैर्नवै: "
अतः रैवतक भी पक्षियों के करुण स्वर के व्याज से विदा होती हुई कन्याओं के लिए रो रहा है । इस उपमा के द्वारा कवि ने अपने हृदय की सरसता तथा चित्रोपमता की क्षमता को सरलता से व्यक्त कर दिया है ।
( २ ) अर्थ गौरव
गुण
की
महाकवि भारवि अपने अर्थ- गौरव के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं । उनकी छोटी से छोटी उक्तियों में अर्थ- गौरव एक विशेष अर्थ की गम्भीरता सन्निहित है । जैसे 'हितं मनोहारि च दुर्लभं वच: ' (१४) भारवि ने भीम की वाणी के प्रशंसा करते हुए ‘अर्थ–गौरव' की ओर संकेत कर दिया है (२।२७) । उनके एक-एक शब्द में तत्वज्ञान भरा हुआ है । वक्ता के अभिप्रायानुरूप ही भारवि की शब्दयोजना है । भारवि के प्रत्येक पात्रों का भाषण चाहे वह सामान्य दूत हो ( १ । ३ ) या शान्तिप्रिय धर्मराज हो या फिर द्रौपदी हो या भीम हो, अर्जुन हो या इन्द्र हो – रेखाङ्कित, विचारपरिप्लुत आदि, मध्य और अन्त से बद्ध तथा सभा में बोलने के लिए तैयार किये हुए भाषण की तरह होता है, उसमें तर्कशुद्धता, विचारों की स्पष्टता Clarity शास्त्रप्रामाण्य, व्यग्रता, शब्दसौष्ठव से पूर्णता, संक्षिप्तता, व्यापकता तथा समयानुरूपता होती है ।
निश्चित ही उक्त गुणों से परिपूर्ण एवं तेजस्वी वाणी को व्यक्त करनेवाला अन्य कवि देखने में नही आता । तथापि गुणों के प्रकाश में कविवर माघ के काव्य को देखने से ज्ञात होता है कि भारवि की तरह ही माघ में भी अर्थ - गौरव की उद्भावना करने की पर्याप्त क्षमता थी । वे इस तथ्य से भली-भाँति परिचित मालूम होते है कि कतिपय वर्णों के ही विन्यास से काव्य साहित्य में असीम वैचित्र्य उत्पन्न होता है, जिस प्रकार केवल सात स्वरों से ग्रसित होने वाला संगीत अनन्त रूप से विचित्र बन जाता है (२ । ७२) । और इसीलिए कविवर माघ वाणी के प्रतान को शाटी के प्रसार के तुल्य समझते हैं (२ । ७४) । निश्चय ही माघ में अर्थ - गाम्भीर्य की विपुलता है और इसका ज्ञान दार्शनिक एवं नीति तथ्यों के उद्घाटन के अवसर पर होता है ( १४ । १९) उदाहरणार्थ. यज्ञ-प्रसंगों के वर्णनों को देखना चाहिए ( १४ । २४ ) ।
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देखिए
आदर्श राजा के स्वरूप का निम्नाङ्कित यह चित्र कितना समुचित तथा चमत्कारी है,
'बुद्धिशस्त्रः प्रकृत्यङ्गो धनसंवृतिकञ्चुकः ।
चारेक्षणो दूतमुखः पुरुषः कोऽपि पार्थिवः ।।' (२ । ८२)
जिसकी बुद्धि ही शस्त्र है, जिसके शरीराङ्ग प्रकृति (प्रजा) स्वामी, अमात्य आदि हैं, जिसका कवच दुर्भेद्य मन्त्र की सुरक्षा है, जिसके नेत्र गुप्तचर हैं, जिसका मुख ही सन्देशवाहक दूत होता है - ऐसा राजा सर्वसामान्य जन न होकर अलौकिक पुरुष होता है । इस छोटे से लोक में अर्थ का गाम्भीर्य (गौरव) पूर्ण रूप से विद्यमान है ।
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