________________
[ 74 ]
नवसर्गगते माघे नवशब्दो न विद्यते
पीछे हम कह चुके हैं कि माघ के काव्य की साज-सज्जा, कल्पना तथा शब्द-भण्डार भारवि से कहीं अधिक है । उनका संस्कृत-कोष पर पूर्ण स्वामित्व था । परिणामतः एक शब्द के कई पर्यायवाची शब्द प्रसंग विशेष में देखने को मिलते हैं । व्याकरण के उदाहरणार्थ – 'सूर्य' के लिये जहाँ - भानुः, सवितृ, दिनकरः, रविः, मित्र:, जैसे रुचिभर्तुः, अतुषारकरः, तिग्मरश्मिः, अनूरुसारथे:, अनूरुसारथिः, अशीतरुचिः, इनः, अंशुमत्, अतुहिनरश्मिः आदि जैसे अपरिचित शब्दों का भी प्रभूत मात्रा में प्रयोग किया गया है । 'गोत्रभिद्' शब्द इन्द्र के लिए आता है । किन्तु गोत्र को भेदनेवाला पति भी होता है- ( ९। ८० ) । अत: गोत्रभिद् का अर्थ 'पति' भी हुआ । लकारार्थ प्रक्रिया के उदाहरण इनमें - १। ३७, १। ३८,१। ४७, १। ५१ देखने चाहिए । इनके अतिरिक्त इन प्रयोगों को भी देखिए – 'संध्यया व्यगमि' (७। १७) 'धातुः सुतेन भुवस्तले चरणौ न्यधायिषाताम्' (१। १३) पर्यपूपुजत्' (१ । १४) 'अभिन्यबीविशत्' (१। १५) 'परितस्तीररे' बिभरांबभूवे' (३। २) । इस प्रकार माघ काव्य के नवम् सर्ग तक आते-आते पाठक के पास व्याकरण का ज्ञान व्युत्पत्ति (बहुज्ञता) व शब्द-भण्डार प्रभूतमात्रा में हो जाता है । उसे ऐसा अनुभव होने लगता है कि अब नये शब्द रहे ही न होंगे ।
माघे सन्ति वयो गुणाः
(१) उपमा का सौन्दर्य – यह उक्ति सर्वाधिक प्रचलित है । महाकवि कालिदास की प्रसिद्धि उनके द्वारा प्रयुक्त उपमाओं के कारण है, क्योंकि उनकी उपमाएँ श्लेष मूलक नहीं हैं । वे सहजरम्य साम्य के ऊपर आधारित हैं । इसलिए उनकी उपमाएँ रमणीय हैं । दूसरा गुण हैं, उनमें यथार्थता का । तीसरा गुण है विविधता का । और चौथा गुण है पूर्णता का । कालिदास ने अपनी उपमाओं में उपमान और उपमेय का सर्वागीण साम्यता का निर्वाह किया है । भारवि अपने अर्थगौरव के लिए प्रसिद्ध हैं । उनकी उक्तियों में गम्भीर अर्थ भरा हुआ है । कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ की अभिव्यक्ति । दण्डी की रचना में पदलालित्य का आनन्द है । किन्तु कविवर माघ में उक्त तीनों का समन्वय है । इतना निश्चित है कि अलंकृत शैली के उद्भावक माघ के भक्तों द्वारा कथित इस उक्ति में अतिशयोक्ति है । फिर भी माघ में इनका अभाव भी नही है । माघ की उपमाओं में चमत्कार है और चित्र को उपस्थित करने की क्षमता भी । एक स्थान पर कविवर माघ प्रात:कालीन चिड़ियों का मधुर कलरव, जल में डूबे घड़े के शब्द के समान बताते हैं -
‘विततपृथुवरत्रा तुल्यरूपैर्मयूखैः कलश इव गरीयान् दिग्भिराकृष्यमाणः ।
कृतचपलविहंगालापकोलाहलाभिर्जलनिधिजलमध्यादेष उत्तार्यतेऽर्कः ॥ ११॥ ४४ अन्यत्र कवि माघ अपने सरल हृदय का परिचय देते हुए कहते हैं – (४। ४७)
'अपशङ्कमङ्कपरिवर्तनोचिताश्चलिताः पुरः पतिमुपेतुमात्मजाः । अनुरोदितीव करुणेन पत्रिणां विरुतेन वत्सलतयैष निम्नगाः' ।