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था । रक्त में लिप्त हुए उनके लाल-लाल दाँत समुद्र में उत्पत्र होने वाले प्रवालांकुर के सदृश दिखाई दे रहे थे । कोई गजराज किसी वीर को उठाकर जमीन पर पटक रहा था
और अन्य हाथी किसी वीर सैनिक को लकड़ी के समान बीच से चीर रहा था । रणक्षेत्र में प्रवाहित रक्तधारा की गन्ध पाकर एक गजराज पागल हो उठा और क्रोध से लोगों को कुचलने लगा । शत्रु के तीक्ष्ण बाण से किसी वीर का कण्ठ कट कर राहु जैसा हो गया । मृतक राजाओं के वक्षःस्थल से गिरे हुए कुंकुम से अनुरंजित मोतियों के हार, रक्तरूपी आसव का पान करने वाले यमराज के दातों की पंक्तियों जैसे दिखाई दे रहे थे । रणक्षेत्र में एकत्र रन यमराज की मुन्दरियों के दुपट्टों को रंगने के लिये रखे हुए कुसुम्भी रंग जैसा दिखाई दे रहा था । रक्त की धारा में कमल के समान वीरों के मुख बह रहे थे । पक्षिगण मांस खाने की इच्छा से मरे हुए वीरों के ऊपर मँडरा रहे थे । श्रृगाली अग्नि-ज्वाला को बाहर निकालती हुई विलाप कर रही थी ।
श्रृगाल मृतकों के शरीर के कलेजों को खा रहे थे । और हुआ-हुँआ' शब्द कर रहे थे । मांसभक्षण करने वाले पशु-पक्षिगण चरबी के लोभ से रण-भूमि में पड़े हुए नगाड़ों के मुख फाड़ डाल रहे थे । इस प्रकार वह रणक्षेत्र मरे हुए प्राणियों के अङ्ग-प्रत्यङ्गों से सब ओर से व्याप्त होकर ऐसा दिखाई दे रहा था मानों लगभग पूर्णतया निर्मित एवं अर्ध-निर्मित आकृति समूहों से व्याप्त विधाता का विशाल सृष्टि-निर्माण स्थल हो । दोनों पक्षों की सेनाएँ जय-पराजय के सन्देह में दोले का रूप धारण कर तुमुल-कोलाहल मचा रही थीं ।
एकोनविंश सर्ग { इसमें कविने द्वन्द्व-युद्ध का वर्णन अनुष्टुपछन्द में चित्रकाव्य का आश्रय लेकर किया है।
भीषण युद्ध के अनन्तर बाणासुर का पुत्र वेणुदारी शत्रुरूपी बाँसों को जलाने वाली अग्नि के समान रणक्षेत्र में युद्धार्थ उठ खड़ा हुआ । किन्तु केसरी के सम्मुख वह टिक न सका, महापराक्रमी बलरामजी ने सिंह के समान गरजते हुए अपने बाणों के आघात से उसे मूच्छित कर दिया । पश्चात् उसका सारथी उसे रण क्षेत्र से लेकर भाग गया । तदनन्तर शिनि तथा रुक्मी आदि सभी वीरों ने एक साथ प्रद्युम्न पर आक्रमण करना प्रारम्भ किया, किन्तु प्रद्युम्न ने अकेले ही चारों ओर से एक साथ दौड़कर आती हुई शत्रु राजाओं की सेनाओं को इस प्रकार रोका जिस प्रकार चारों ओर से आती हुई नदियों को अकेला समुद्र रोक लेता है । उस अवसर पर शत्रुओं के चमकीले बाणों से विद्ध उस प्रद्युम्न का शरीर मंजरी युक्त विशाल वृक्ष के समान परिलक्षित हो रहा था । उसके तीव्र गति से चलने वाले बाण कभी विफल नहीं होते थे । क्षणमात्र में ही उसके पराक्रम के कारण शत्रु-सेना में भगदड़ मच गयी । रणक्षेत्र में उसकी वीरता को देखकर देवतागण प्रशंसा करने लगे ।