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महाकवि माघ का पाण्डित्य एवं उनकी व्युत्पन्नता : -
संस्कृत के महाकवियों की परम्परा में माघ का व्यक्तित्व, कवित्व और पाण्डित्य, प्रखरता और आह्लादकता, रूक्षता और आर्द्रता के अपूर्व संयोग (Syntheesis) को लेकर उपस्थित होता है । उनमें वे सभी विशेषताएँ हैं जो उनके पूर्ववर्ती कवियों में थीं । वस्तुतः वे बहुमुखी प्रतिभाशाली कवि हैं । एक सफल कवि के लिए जितना प्रतिभा सम्पन्न होना आवश्यक है उतना ही व्युत्पन्न होना भी परम आवश्यक है । इसे ध्यान में रखकर ही हमारे आर्ष और लौकिक साहित्य में 'कवि' -शब्द का प्रयोग सर्वज्ञ और सब विषयों के वर्णन करने वाले के लिये हुआ है । हमारे काव्यशास्त्र के आचार्यों के मत में कवित्व के दो आधार स्तम्भ हैं - दर्शन और वर्णन । इन दोनों के पूर्ण रूप से समन्वित होने पर ही सत्कवित्व का उन्मेष होता है । दर्शन का अर्थ है, वस्तु के विचित्र भाव को, उसके अन्तर्निहित धर्म को, तत्व रूप से देखना, और वर्णन का अर्थ है, उसे शब्दरूप में प्रकट करना । वस्तु के बाह्य और अन्तर्निहित तत्व का द्रष्टा होने के कारण ही कवि 'क्रान्तदर्शी कवयः क्रान्तदर्शिनः' कहलाता है । किन्तु विशेष ध्यातव्य यह है कि दर्शन
और वर्णन के समन्वितरूप से निर्मित काव्य सृष्टि का केन्द्र बिन्दु है - 'कवि की व्युत्पत्ति' से संस्कृत प्रतिभा जो अपूर्व वस्तु के निर्माण में समर्थ होकर नियति कृत नियमों से सर्वथा रहित होती है । व्युत्पत्ति से संस्कृत प्रतिभा के द्वारा ही कवि उन भावों तथा चित्रों की उद्भावना करता है, जिन तक जन-साधारण की दृष्टि नहीं पहुंच पाती । कवि कर्म उन भावों तथा चित्रों तक ही सीमित नहीं है उसकी सफलता की मूल कसौटी है - परप्रेषणीयता । कवि अपनी अनुभूति को पर संवेद्य बनाकर ही सतोष लाभ करता है । काव्य में यह परप्रेषणीयता का गुण तब तक नहीं आ सकता जब तक कवि लोक हृदय न हो जाय । लोक हृदयता के लिए आवश्यक है - कवि के लिए व्यापक लोक ज्ञान की आवश्यकता । यह व्यापक ज्ञान ही है - कवि की व्युत्पत्ति, बहुज्ञता और 'व्युत्पत्ति' (कवि की व्युत्पन्नता )-लोक और शास्त्र के ज्ञान पर निर्भर है।
___ इसी दृष्टि से कवि कर्म की महत्ता भरतमुनि और भामह ने स्वीकार की है । लोक में ऐसा न कोई वाच्य है और न वाचक, न कोई शब्द है और न कोई अर्थ जो काव्य-तत्त्व, का अंग न हो सके । इसीलिए कवि को सर्वज्ञ 'व्युत्पत्र' होने की आवश्यकता है । अर्थात कवि को विभिन्न शास्त्रों और लोकानभव का जान आवश्यक है। वास्तव में व्युत्पन्न कवि ही कवि होता है - "कवयः पण्डितकवयः" राजशेखर ने कविज्ञान के व्यापक क्षेत्र को ध्यान में रखकर ही व्युत्पत्ति को काव्य की जननी कहा है । व्युत्पत्ति और प्रतिभा के उत्कृष्ट संयोग से ऐसे सहृदयाह्लादक काव्य की रचना होती है, जो सदा विदग्धजन मण्डित रहता है । विभित्र आचार्यों ने उपलक्षण के रूप में कुछ प्रधान विद्याओं का उल्लेख कर दिया है । क्षेमेन्द्र ने तर्क, व्याकरण, भरत, चाणक्य, वात्स्यायन,