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बाण के हर्षचरित' में अंकित विवरण से तथा बिल्हण के - 'राजद्वारे भगाकारे बिल्हणो वृषणायते' - इस कथन से मिल जाता है । निश्चित ही माघ को अपने पूर्ववर्ती कवियो-विशेष कर कवि भारवि- को पछाड़ने के लिये उनके द्वारा वर्णित वर्णनों जैसे वणनों को अपने काव्य में चित्रित कर और आगे बढ़कर अपना काव्य कौशल दिखाने के व्यक्तिरिक्त अन्यमार्ग नहीं था । ऐसी स्थिति में पूर्ववर्ती कवियों के वर्णनों की छाया या उनको समानता माघ के काव्य 'शिशुपालवध' में दिखाई देना कोई आश्चर्य नहीं है । इस समानता को आप उनकी नकल या उनका अनुकरण कह सकते हैं, किन्तु अपने अभिलाषा ( यशोलिसा ) की पूर्ति के लिए किये हुए कवि के ये प्रयत्न सहज स्वाभाविक ही माने जायेंगे । अनुकरण या नकल नहीं । वैज्ञानिकों की दृष्टि में मौलिकता का दूसरा नाम नवीन उदभावना है, किन्तु साहितय. में किसी भाव को प्रस्तुत करने के नवीन दृष्टिकोण अथवा विवेचन की नवीनता को ही मौलिकता कहा जाता है । केवल भाव साम्य अथवा प्रभाव प्रहण में मौलिकता नष्ट नहीं होती । माघ का कवि 'भावपरिपन्थी' तो नहीं कहा जा सकता । वह पूर्व वर्णित भाव को अपनी अम्लान प्रतिभा और व्युत्पत्ति के साँचे में ढालने में खूब कुशल है । परिणामतः पूर्वदृष्ट सारे भाव-पदार्थ-भी नए से प्रतीत होने लगते हैं । देखिए - एक उदाहरण पर्याप्त होगा- भारवि के भाव को ग्रहण कर माघ के कवि ने अपनो मौलिकता से सजाकर किस प्रकार उपन्यस्त किया है -
भारवि कहते हैं - 'कृतावधानं जितबर्हिणध्वनौ सुरक्तगोपीजनगीतनिःस्वने । इदं जिघत्सामपहाय भूयसी न सस्यमभ्येति मृगीकदम्बकम् ॥' (४। ३३ भारवि) इसी भाव को माघ के कवि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है - 'विगतसस्य जिघत्समघट्टयत्कलमगोपवधून मृगव्रजम् ।
श्रुततदीरित कोमलगीतकध्वनिमिषेऽनिमिषेक्षणमग्रतः ॥" ( माघ० ६। ४९ )
यही मौलिकता उसके सेनाप्रयाण वाले स! -( ५, १२, १३ ) तथा एकादश सर्ग के प्रभात वर्णन में परिलक्षित होती है । इसी प्रकार माघ ने भट्टि के भाव को ग्रहण कर एक अपूर्व कलात्मकता के साथ उसे प्रस्तुत किया है - माघ का पद्य इस प्रकार है -
'सटाच्छटाभित्रघनेन विप्रता नृसिंहसँहीमतनुं तनुत्वया
समुग्धकान्तास्तनसङ्गभहरैः रुरोविदारं प्रितिचस्करे नखैः ॥' (१। ४७ ) 'हे नृसिंह ! आपने अति विशाल सिंह का शरीर धारण कर, अपनी अयाल की शोभा से बादलों को छित्र-भित्र करके, उस दैत्य के वक्षःस्थल को, मुग्धा कान्ता के ( कठोर ) स्तनस्पर्शमात्र से टेढ़े हो जाने वाले, अपने नखों से, विदीर्ण कर दिया ।" भट्टि का इसी भाव को व्यक्त करने वाला पद्य इस प्रकार है -
'क्व स्त्रीविषहयाः करजाः क्व वक्षो, दैत्यस्य शैलेन्द्रशिला विशालम् । सं पश्यतैतद् घुसदा सुनीतं विभेद तैस्तत्ररसिंहमूर्तिः ॥" ( भट्टि - १२.५९ )