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[ 20 ] वर्णन ( ८ सर्ग ), सूर्यास्त तथा चन्द्रोदय का वर्णन ( ९सर्ग ), मधुपान और सुरतवर्णन (१:सर्ग ), प्रभात वर्णन ( ११ सर्ग ), प्रात:कालीन अभियान का वर्णन ( १२ सर्ग ), पाण्डवों से मिलन तथा सभाप्रवेश का वर्णन ( १३ सर्ग ), राजसूययाग तथा दान का वर्णन ( १४सर्ग ), शिशुपाल का विद्रोह वर्णन (१५ सर्ग ), दूतों की उक्ति-प्रत्युक्ति का वर्णन ( १६ सर्ग ), सभासदों के क्षोभ तथा युद्धार्थ कवच धारण का वर्णन (१७ सर्ग ), युद्ध का वर्णन ( १८-१९ सर्ग ) तथा श्रीकृष्ण और शिशुपाल के साथ द्वन्द्व युद्ध का वर्णन २० वें सर्ग में सम्पन्न होता है ।
उपर्युक्त कथा एवं वर्णनों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि माघ प्रबन्धकाव्य के इतिवृत्त निर्वाहकता में सफल नहीं कहे जा सकते । इनके पूर्ववर्ती कवियों - भारवि
और कुमारदास जैसी थोड़ी भी इतिवृत्त-निर्वाहकता माघ में नही पाई जाती । माघ में इतिवृत्त और प्रासंगिक वर्णनों का किचिंन्मात्र भी सन्तुलन नहीं मिलता । वस्तुत: मूल कथावस्तु ४ थे सर्ग से १३ सर्ग तक का वर्णन अनपेक्षित रूप में विस्तृत कर दिया गया है । परिणामतः वीररसपूर्ण इतिवृत्त में अप्रासंगिक श्रृङ्गार लीलाओं का छ: सर्गो में विस्तार है । जो मुक्तक की तरह प्रतीत होता है । इसका मूल कारण है कवि का व्यक्तित्व Personality स्वभाव । संसार की विविध घटनाओं, व्यक्तियों तथा सामाजिक वातावरण-प्रसंगादि ले अनुभवों से सतत होने वाले परिणामों से ही कवि की मनोरचना का, उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है और उसके व्यक्तित्व में ही धार्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक विचार, उसका विद्या-कलाभ्यास तथा उसकी नैसर्गिक रुचि-अरुचि भी सत्रिहित रहती हैं । इसीलिए राजशेखर कहते हैं - जिस स्वभाव का कवि होता है, तदनुरूप ही उसका काव्य भी होता है - 'स यत्स्वभाव: कविस्तदनुरूपं काव्यम् ।
(का० मी० १०) __ हम अन्यत्र कह चुके हैं कि माघ एक ऐसे युग की देन है जिसके प्रमुख लक्षण श्रृङ्गारिकता, साज-बाज के कार्यों में अत्यधिक रुचि और चमत्कार एवं विद्वत्ता प्रदर्शन की प्रवृत्ति आदि हैं । मदिरा एवं प्रमदा के साहचर्य के प्रति कवि की रुझान भी आठवीं से दसवीं शताब्दी के उत्तर भारतीय राजपूत जीवन को झलकाती है ।
६ वि को प्रबन्धकाव्य के इतिवृत्त की निर्वाहकता में सावधान रहना चाहिए, इस बात का ज्ञान कविवर माघ को पूर्ण रूप से था, किन्तु युग-प्रभाववश तथा पूर्ववर्ती कवि भारवि की कीर्ति-पताका को ध्वस्त करने के भावावेश में वे स्वयं उक्त तथ्य की ओर ध्यान नहीं दे सके - वे कहते हैं -
बह्वपि स्वेच्छया कामं प्रकीर्णमभिधीयते । अनुज्झितार्थसम्बन्धः प्रबन्धः प्रबन्धो दुरुदाहरः ।। २। ७३ ।।