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द्वितीयः सर्गः
१३७ हिन्दी अनुवाद-( उद्धवजी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि ) महान् लोग शरण में आये शत्रुओं पर भी अनुग्रह किया करते हैं, जैसे-महानदी अपनी सौतों ( छोटी-छोटी पहादी नदियों ) के शरण में आजाने पर उन्हें भी अपने पति समुद्र के पास पहुंचा देती है ।। १७४ ।। ___ अतः युजिष्ठिर के यज्ञ-भार को वहन करना आपका कर्तग्य हो जाता है ।। ५.४ ॥
प्रसन्न .. उद्धवजी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि विमानित मित्रों को कठिनाई से सन्तुष्ट किया जा सकता है-- तहि सम्प्रत्युपेक्षायामपि पश्चात्प्रार्थनया पार्थमाजवयेयमित्यत आह
चिरादपि बलात्कारो बलिनः सिद्धयेऽरिषु ।
छन्दानुवृत्ति दुःसाध्याः सुहृदो विमनीकृताः ॥ १०५॥ चिरादिति ।। बलिना स्वयं बलवतोऽप्यरिष विषये बलात्कारो दण्डश्चिरा. चिरकालेनापि । सद्यो मा भूदिति भावः। सिद्धये वर्शवदत्व सिद्धये। भवतीति शेषः । अविमनसो विमनसः सम्पद्य माना: कृता विमनोकृताः। वैमनस्यं प्रापिता इत्यर्थः । 'अरुमंनश्चक्षुश्चेतोरहोरजसा लोपश्च' ५।४।५१) इति विप्रत्ययलोपो। 'अस्य चौ' (७।४।३२) इतोकारः । शोमनं हृदयं येषां ते सुहृदो मित्राणि तु । 'सुहृत् दुहूं दो मित्रामिषयोः' (५।४।१५०) इति निपातः । छन्दस्याभिप्रायस्यानु. वृत्त्या चित्तानुरोधेनापि दुःसाध्याः । बार्जवयितुमशक्या इत्यर्थः। 'अभिप्रायश्छन्द आशयः' इत्यमरः। शनैः शत्रुर्दण्डेनापि वशो भवति, मित्रं वमनस्ये न साम्नाऽणति भावः ॥ १०५ ॥
अन्वयः-( हे कृष्ण !) बलि नः चिरात् अपि अरिषु वलात्कारः सिद्धये (भवति) विमनीकृताः सुहृदः छन्दानुवृत्तिदुःसाध्याः ।। १०५ ।।
हिन्दी अनुवाद-(उद्धवजी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि) बलवान् व्यक्ति शवपर आक्रमण कुछ विलम्बसे भी यदि करता है तो हानि नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं बलवान् है, और जब चाहेगा तब उसे दण्डित कर सकेगा । परन्तु मित्रों की भग्नप्रीति को पुनः प्राप्त करना सर्वथा कठिन है । अर्थात् मित्र के साथ वैमनस्य होने पर उसे कठिनता से प्रसन्न किया जा सकता है ॥ १० ॥
प्रसा-अब उद्धवजी श्रीकृष्ण के मन का सन्देह दूर कहते हैंननु सुहृत्कार्यात्सुर कार्य बलीय इत्यवाह---
मन्यसेऽरिवधः श्रेयान्प्रीतये नाकिनामिति ।'
पुरोडाशभुजामिष्टमिष्टिं कर्तुमलन्तराम् ।। १०६ ।। १. 'नामपि' इति पा०। २. मिष्टं ।