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द्वितीयः सर्गः से प्रथित गाने के समान परिमित (पचास ) अक्षरों से ग्रथित शब्दों (वचन ) की असोमित ( रचनाभेद के कारण ) विचित्रता होती है, यह आश्चर्य है ॥
(बलराम के द्वारा इस विषयपर अर्थात् शिशुपाल पर आक्रमण करना चाहिये या युधिष्ठिर के यज्ञ में सम्मिलित होना चाहिए-पर्याप्त कहा जानेपर यद्यपि इस विषय में कुछ भी कहना शेष नहीं रहा है, फिर भी निषादादि सात स्वरों से सङ्गीत शास्त्र के गायन के प्रकार जैसे असंख्य हैं, उसी तरह केवल पचास अकारादिवर्णमातृकाओं से रचित शब्द-प्रयोग के प्रकार भी अनन्त हैं, इसलिये बलराम की उक्ति में अर्थात् उनके कथन में और अधिक विशेषता लाने के लिये मेरा कुछ कहना निसरी असंगत नहीं होगा ॥ ७२ ॥
विशेष-संगीत शास्त्र के सम्बन्ध में कवि की अधिकार पूर्ण उपमाएँ एवं उक्तियाँ सिद्ध करती हैं कि महाकवि माघ संगीतप्रेमी थे। उनकी संगीतनिपुणता उपर्युक्त श्लोक से प्रकट होती है, उपर्युक्त श्लोक में उपमालङ्कार है ॥ ७२ ॥
प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी कहते हैं कि पूर्वापर सम्बन्ध से युक्त विषयका प्रतिपादन करना बहुत ही कठिन होता है -
बपि स्वेच्छया कामं प्रकीर्णमभिधीयते ।
अनुज्झितार्थसम्बन्धः प्रबन्धो दुरुदाहरः ।। ७३ ॥ बह्वपीति ॥ स्वेच्छया स्वप्रतिभानुसारेण प्रकीर्णमसङ्गत बह्वपि काम यथेष्टमभिधीयते । किन्तु अनुज्झितोऽर्थसम्बन्धः पदार्थसङ्गतियं स्मिन्स प्रबन्धः सन्दर्भः दुरुदाहरो दुर्वचः। हरतेः खल्प्रत्ययः । रामेण तु सङ्गतमेवोक्तमिति स्तुतिः, असङ्गतमेवोक्तमिति निन्दा च गम्यते ॥ ७३ ।।
अन्वयः--स्वेच्छया प्रकीर्ण बहु अपि कामम् अभिधीयते । अनुज्झितार्थसम्बन्धः प्रबन्धः दुरुदाहरः ॥ ७३ ॥
हिन्दी अनुवाद-( उद्धवजी कहते हैं कि ) स्वेच्छा से असङ्गत (नीतिशास्त्रके विरुद्ध ) बातें चाहे जितनी कही जा सकती हैं, परन्तु पूर्वापर सम्बन्ध से युक्त विषय का प्रतिपादन करना बहुत ही कठिन है ॥ ७३ ॥ ___ विशेष-प्रबन्ध का अर्थ है-जो बन्ध सहित हो । विद्वान् प्रबन्ध को काग्य का श्रेष्ठरूप मानते हैं। प्रबन्ध को आचार्य कुन्तक ने महाकवियों का कीर्तिकन्द अर्थात् उनके यश का मूल आधार माना है____ "प्रबन्धेषु कवीन्द्राणां कीर्तिकन्देषु किं पुनः ।" क्रमसिद्धिस्तयोः स्रगुसंसवत् (का० लं० सू० १।३।२८) आचार्य वामन के मत में मुक्तक और प्रबन्ध में वही सम्बन्ध है जो माला और उत्तंस में। जिस प्रकार माला गुंफन की कला में पारंगत होने के पश्चात् ही उत्तंस ( शिरोभूषण) गुंफन में सिद्धि प्राप्त होती है, उसी
८शि०व०