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द्वितीयः सग
तथा गुण ( शौर्यादि ) के द्वारा किसी ( सुकृत, कीर्ति पुरुषार्थादि ) प्रयोजन या पुरुष का जन्म केवल ( यज्ञदत्तादि ) नाममात्र की
लक्ष्य की सिद्धि न करने वाले पूर्ति के लिये है ॥ ४७ ॥
प्रसङ्ग - पुरुषार्थहीनता के दोषों को व्यक्त करने के पश्चात् प्रस्तुत श्लोक में पुरुषार्थ के गुणों का वर्णन किया जाता है ।
एवमपौरुषं दूषयित्वा पौरुषं भूषयति
तुङ्गत्वमितरा नाद्रौ नेदं सिन्धावगाधता । अलङ्घनीयताहेतुरुभयं तन्मनस्विनि ॥ ४८ ॥
तुङ्गत्वमिति ॥ अद्री पर्वते तुङ्गत्वम् । औन्नत्यमस्तीति शेषः । अस्तिर्भवन्तीपरोऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्तीत्यादिभाष्यात् । भवन्तीति पूर्वाचार्याणां लटः संज्ञा । इतराऽगाधता नास्ति । सिन्धो समुद्रेऽगाधता गम्भीरताऽस्ति इदं तुङ्गत्वं नास्ति । मनस्विनि वीरे त्वलङ्घनीयता हेतु र लङ्घयत्व कारणं तदुभयं तुङ्गत्वमगाधता च । तस्मादद्रि सिन्धुभ्यामधिको मनस्वीति व्यतिरेकालङ्कारः ॥ ४८ ॥
अन्वयः -- भद्वौ तुङ्गत्वं इतरा न, सिन्धौ भगाधता, इदं न, मनस्विनि (तु) अलङ्घनीयता हेतुः तत् उभयम् ॥ ४८ ॥
हिन्दी अनुवाद - पर्वत में ऊँचाई है, अथाहपन ( अगाधता ) नहीं है, समुद्र में अगाधता है, पर ऊँचाई नहीं है, ( इसलिये ये दोनों ही लांघे जा सकते हैं ) परन्तु वीर पुरुष में गम्भीरता ( अगाधता ) है और आत्मगौरव से वह अत्यन्त उन्नत भी है, इस प्रकार इसमें ( तुंगत्व और गांभीर्य - - अगाधता ) भलङ्घनीयता के दोनों कारण उपस्थित हैं, प्रस्तुत श्लोक में व्यतिरेकालङ्कार है ॥ ४८ ॥
विशेष- उपर्युक्त श्लोक से बलराम जी कहते हैं कि मनस्वी ( वीर ) पुरुष उच्चता ( महत्ता = बढप्पन ) तथा गम्भीरता दोनों ही गुण होते हैं, ऐसी स्थिति में मनस्वी पुरुष का कोई अपमान करे और वह निष्क्रिय ( शान्त ) बैठा रहे, यह सर्वथा अनुचित है । इसलिए शिशुपाल से प्रताडित होकर हमें शान्त नहीं बैठे रहना चाहिए ॥
प्रसङ्ग — बलराम जी शान्त रहने के परिणाम को कहते हैं ।
सम्प्रति शत्रौ मार्दवमनर्था येत्याह
तुल्येऽपराधे स्वर्भानुर्भानुमन्तं चिरेण यत् । हिमांशुमाशु ग्रसते तन्म्रदिम्नः स्फुटं फलम् ॥ ४९ ॥ तुल्ये इति ॥ स्वर्भानूराहुरपराधे तुल्येऽपि भानुमन्तं सूर्यं चिरेण ग्रसते, ७ शि० व०