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प्रथमः सर्गः
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सकता । ) यह कहने के लिए ( पूछने के लिए ) जो ( धृष्टता ) मुझे प्रेरित कर रही है, हमारी उस धृष्टता को, मेरे आत्मगौरव को बढ़ानेवाला, आपका लाध्य आगमन ही बढ़ावा दे रहा है ॥ ३० ॥
( आप विरक्त हो, आपको किसी वस्तु को स्पृहा नहीं है, फिर भी मेरे यहाँ आपके आगमन मात्र से दृष्ट हुआ मैं आपके आगमन का कारण जानना चाहता हूँ ।। ३० ।। )
प्रसङ्ग - नारद मुनि श्रीकृष्ण के प्रश्न का इस प्रकार उत्तर देते हैं । इति ब्रुवन्तं तमुवाच स व्रती न वाच्यमित्थं पुरुषोत्तम ! त्वया । त्वमेव साक्षात्करणीय इत्यतः किमस्ति कार्य गुरु योगिनामपि ॥ ३१ ॥
इतीति ॥ इति ब्रुवन्तं तं हरिं स व्रती मुनिरुवाच । किमिति । हे पुरुषोत्तम ! पुरुषेषु श्रेष्ठ ! 'न निर्धारणे' इति पष्ठीसमासप्रतिषेधः । त्वया इत्थं 'गतस्पृहोऽपि ' इति न वाच्यम्, निस्पृहस्याप्यत्र प्रयोजनसम्भवादिति भावः । तदेवाह योगिनामपि त्वमेव साक्षात्करणीयः प्रत्यक्षीकर्तव्य इत्यतोऽस्मादन्यद् गुरु कार्यं किमस्ति । न किञ्चिदित्यर्थः । तस्मान्न प्रयोजनान्तरप्रश्नावकाश इति भावः ॥ ३१ ॥
अन्वयः -- इति ब्रुवन्तं तं सव्रती उवाच- पुरुषोत्तम ! श्वया इथं न वाच्यम् । योगिनाम् अपि त्वमेव साक्षात्करणीयः, इत्यतः गुरु कार्य किम् अस्ति ? ॥ ३१ ॥
हिन्दी अनुवाद -- यह कहते हुए उनसे ( श्रीकृष्ण को ) नारदमुनि बोलेहे पुरुषोत्तम ! आपको ऐसा ( गतस्पृहोऽपि ) नहीं कहना चाहिए। ( क्योंकि ) योगियों को भी आपका ही साक्षात्कार करना है । ( अतः ) इस ( आपके दर्शन ) से बड़ा कौन सा कार्य ( प्रयोजन ) है ? ( अर्थात् कोई नहीं । ) ॥ ३१ ॥
भी आप आने का प्रयोजन
( इस तरह कहते हुए, अर्थात् 'निस्पृह रहते हुए कहें' - श्रीकृष्ण को नारद मुनि ने कहा कि हे पुरुषोत्तम ! आप ऐसा न पूछें, क्योंकि बड़े योगी भी आप ही के दर्शनाभिलाषी रहते हैं। आपके दर्शन से बढकर और कोई अन्य काम ( हमें, इस समय, यहाँ आने का ) नहीं है । )
विशेष - गीता में पुरुषोत्तम की व्याख्या इस प्रकार है"यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ " ( १५/१८ )
प्रसङ्ग -- नारदजी अपने पूर्वोक्त (१1३१) वचन पर ही बल देते हुए कहते हैं । त्वमेव साक्षात्करणीय इत्येतदेव साधयितुमाह
उदीर्णरागप्रतिरोधकं जनैरभीक्ष्णमक्षुण्णतयाऽतिदुर्गमम् | उपेयुषो मोक्षपथं मनस्विनस्त्वमग्रभूमिनिरपायसंश्रया ॥ ३२ ॥