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प्रथमः सर्गः अन्वयः-अदः नः दृशोः द्वयं तदाकणि ( अतः ) फलाढयजीवितम्, तद् अवीक्षि च ( अतः ) फलम्-इति चक्षुः श्रवसां प्रियाः तत् आत्मनः हृदा स्तुवन्ति स्म, निन्दन्ति स्म च ।
हिन्दी-यह हमारा नेत्रयुग्म नल के गुणों को सुनता है, अतः इसका जोवन सफल है, उसका दर्शन नहीं पाता, इस से निष्फल है- इस प्रकार नेत्रों से ही सुन सकने की शक्तिवाले चक्षुश्रवानागों की पातालवासिनी प्रियाएँ उस अपने नेत्रयुगल की अपने मन में प्रशंसा भी करती थीं और निन्दा भो ।
टिप्पणी--पाताल में नल के गुण ही तो विख्यात थे, वह वहाँ उपस्थित कहाँ था ? पातालवासिनी नाग प्रियाएं उसे न देख सकने के कारण अपने नेत्रों को कोसती थीं, पर गुण-श्रवण तो उनसे ही हो पाता था; अतः एक ओर प्रशंसा, दूसरी ओर निन्दा ।
जीवातुकार मल्लिनाथ ने इसमें अतिशयोक्ति मानी है और साहित्यविद्याधरीकार विद्याधर ने गुणक्रियाविरोधालंकार । यह दस हैं-'जातिश्चतुर्भित्यिाद्य विरुद्धा स्याद् गुणास्त्रिभिः । क्रिया द्वाभ्यामथ द्रव्यं द्रव्येणैवेति ते दश ।' विलोकयन्तीभिरजस्रभावनाबलादमं तत्र निमोलनेष्वपि । अलम्भि माभिरमुष्य दर्शने न विघ्नलेशोऽपि निमेषनिर्मितः ॥२९॥
जीवात-विलोकयन्तीभिरिति । अजस्रभावनाबलात् निरन्तरध्यानप्रभावात् अमुं नलं तत्र भावनायामिति भावः। निमीलनेषु अपि निमेषावस्थासु अपि विलोकयन्तीभिः उन्मेषावस्थायामिव साक्षात् कुर्वतीभिः माभिः मानवीभिः अमुष्य नलस्य दर्शने निमेषनिर्मितः नेत्रनिमीलनजनितः विघ्नलेशोऽपि अन्तरायलवोऽपिन अलम्भि न प्राप्तः । 'विभाषा चिण्णमुलोः' इति मुमागमः । मानव्यः दृष्टिगोचरं दृष्टया अदृष्टिगोचरञ्च तं मनसा सततं पश्यन्ति स्मेति भावः । अतिशयोक्तिरलङ्कारः ॥ २९ ॥
अन्वयः--अजस्रमावनाबलाद् अमुं नेत्रनिमीलनेषु अपि विलोकयन्तीमिः माभिः अमुष्य दर्शने निमेषनिर्मितः विघ्नलेशः अपि न अलम्भि।
हिन्दी-निरन्तर नल की भावना करते रहने के बल पर उसे नयन झपकने पर ( मन में ) भी देखती हुई मत्यलोकवासिनी मानवसुन्दरियों ने पलक झपकने के कारण उत्पन्न इसके दर्शन में पड़ते विघ्न का लेश भी नहीं प्राप्त किया।