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प्रथमः सर्गः
पुच्छविलोलन-प्रतिषेध करके बालचापल की स्थापना होने के कारण मल्लिनाथ यहाँ अपहनुति मानते हैं, विद्याधर ( साहित्यविद्याधरी के कर्ता ) 'चापलमिव शंसति'-ऐसी कल्पना करके प्रतीयमानोत्प्रेक्षा, और अपहनुति भी।
महीभूतस्तस्य च मन्मथश्रिया निजस्य चित्तस्य च तं प्रतीच्छया। द्विधा नपे तत्र जगत्त्रयीभुवां नतभ्रुवां मन्मथविभ्रमोऽभवत् ।।२६।।
जीवातु-महीभृत इति । तस्य महीभृतो नलस्य मन्मथस्येव श्रीः कान्तिः तया च निजस्य चित्तस्य तं नलं प्रति इच्छया रागेण च तत्र नूपे नले जगत्त्रयीभुवां त्रिभुवनवर्तिनीनां नतभ्र वां कामिनीनां द्विधा द्विप्रकारेण मन्मथविभ्रमः अयं मन्मथ इति विशिष्टा भ्रान्तिः कामावेशश्च अभवत् । अत्र श्लेषसङ्कीर्णो यथासंख्यालङ्कारः ।। २६ ॥ ___ अन्वयः--तस्य महीभृतः मन्मथश्रिया तं प्रति निजस्य चित्तस्य इच्छया च तत्र नृपे जगत्त्रयीमुवां नतभ्र वां द्विधा मन्मथविभ्रमः अभवत् ।
हिन्दो-उस पृथ्वीपति की कामसमान कांति और ( अतएव । उसके प्रति अपने चित्त का अभिलाष--इस प्रकार उस राजा नल में त्रिलोकी में उत्पन्न समस्त सुन्दरियों को दो प्रकार से काम का भ्रम हो गया, जिससे उनके नयन लाज से झुक गये।
टिप्पणी-राजा मदनतुल्य मनोहर था और त्रिलोकी की सुन्दरियां उसका अभिलाष करती थीं--कवि का यहाँ यही भाव है। यहां एक साथ त्रिलोक-सुन्दरियों की मुग्धता का वर्णन कर कवि ने अपने तीन श्लोकों में क्रमशः स्वर्ग, पाताल और मयंसुन्दरियों का विमोहन प्रतिपादित किया है। 'विभ्रम' का अर्थ भ्रम-भ्रान्ति भी है और कामजनित कटाक्षादि विलास भी'विभ्रमो भ्रान्तिहावयोः' इति विश्वः । यह 'विभ्रम' का द्वैविध्य है, एक तो राजा के 'मन्मथश्री' होने से उसमें मन्मथ भ्रांति, दूसरा अभिलाष-जनित लज्जा अथवा विलास का सूचक भौओं का नीचा हो जाना।
मल्लिनाथ ने यहाँ श्लेषसंकीणं यथासंख्य अलंकार माना है, विद्याधर ने 'मन्मथश्रिया' के कारण उपमा और 'विभ्रम' के कारण श्लेष । नारायण पण्डित ने मन्मथ की व्युत्पत्ति की है-मननं मत् शास्त्राद्यभ्यासजन्यं ज्ञान मथ्नातीति मन्मथः । मूलविभुजादित्वात्कः ॥२६॥