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महाकवि श्री श्रीहर्ष अद्भुत तर्कशास्त्री भी थे, साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वे कान्यकुब्जाधिपति की राजसभा के समादरणीय पंडित-कवि थे, जिन्हें आदरपूर्वक कान्यकुब्जेश्वर 'ताम्बूलद्वय' और 'आसन' अर्पित किया करते थे । इन कान्यकुब्जेश्वर का नाम जयन्तचन्द्र था
परममहाराजाधिराजपरमेश्वरपरममाहेश्वराश्वपतिगजपतिनरपतिराजत्रयाधिपतिविविधविद्या विचारवाचस्पतिश्रीमज्जयन्तचन्द्रः ।'
'इण्डियन एंटिक्वेटी' प्राचीन लेखमाला के तेईसवें लेख में प्रकाशित; वि० संवत् १२४३, आषाढ़ शुदि रविवार सप्तमी ( ईशवीय सं० ११८७ ) को लिखित दानपत्र के अनुसार महाराज जयंतचन्द्र की वंशपरंपरा का क्रम इस प्रकार है-यशोविग्रहमहीचन्द्र-श्रीचन्द्रदेव-मदनपाल-गोविन्दचन्द्रविजयचन्द्र-जयन्तचन्द्र । इस प्रकार श्रीजयन्तचन्द्र यशोविग्रह की कुलपरंपरा में जात श्रीविजयचन्द्र के पुत्र थे। जैसा कि आगे ज्ञात होगा, इस मान्यता में केवल एक बाधा पड़ती है कि एक श्लोक में जयन्तचन्द्र को 'गोविन्द नन्दन' कहा गया है । सामान्यतया 'नन्दन' से तात्पर्य पुत्र ही होता है, पर परंपरया 'पौत्र' भी माना जा सकता है।
जैनपण्डित राजशेखररचित 'प्रबंधकोष' (ई० सं० १३४८ ) में श्रीहर्ष के विषय में कुछ अच्छा विवरण दिया गया है, जिससे ज्ञात होता है कि राजा जयन्तचन्द्र की सभा में बहुत-से पंडित थे। उनमें एक हीरपंडित भी थे। उसी के पुत्र महाविद्वान् श्रीहर्ष भी थे—'पूर्वस्यां वाराणस्यां पुरि गोविन्दचन्द्रो नाम राजा ५७. अन्तःपुरीययौवनरसपरिमलग्राही। तत्पुत्रो जयन्तचन्द्रः ( दानपत्र के अनुसार यह पाठ 'तत्पुत्रो विजयचन्द्रः । तत्पुत्रो जयन्तचन्द्रः' होना चाहिए। दाधीचपंडित शिवदत्त शास्त्री ने ऐसा ही संशोधन परिवर्द्धन कर दिया है । ) तस्मै राज्यं दत्त्वा पिता योगं प्रपद्य परलोकमसाधयत् । जयन्तचन्द्रः सप्तप्रयोजनशतमानां पृथिवीं जिगाय । मेघचन्द्रः कुमारस्तस्य । यः सिंहनादेन सिंहानपि भक्तुमलम् । किं पुनर्मदान्धगन्धेभभटाः। तस्य राज्ञश्चलतः सैन्यं गङ्गायमुने विना नाम्भसा तृप्यतीति नदीद्वययष्टि. ग्रहणात् 'पगुलो राजा' इति लोके श्रूयते । तस्य गोमती दासी षष्टिसहस्रेषु वाहेषु प्रक्षरां निवेश्याभिषेणयन्ती परचक्रं त्रासयति । राज्ञः श्रम एव का।