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नैषधमहाकाव्यम्
अन्वयः-अमुष्य रसनाग्रनर्तकी विद्या त्रयी इव अङ्गगुणेन विस्तरं नीता नवद्वयद्वीपपृथग्जयश्रियाम् जिगीषिया अष्टादशताम् अगाहत ।
हिन्दी-जिह्वा के अग्र भाग पर नर्तन करती इसकी विद्या ऋक्, यजुः, सामन्-इस वेदत्रयी की भांति छः वेदांगों से गुणा करके विस्तार को प्राप्त होकर जैसे नौ के दूने अठारह द्वीपों को अलग-अलग जीतने को इच्छा से अठारह हो गयी।
टिप्पणी-नल समस्त विद्याओं के पूर्णज्ञाता थे और उन्होंने अठारह द्वीपों पर अपना महिमान स्थापित किया था-कवि का यहाँ यह आशय है। इसी भाव की विविध प्रकार से योजना की जाती है। अठारह को जीतने के लिए अठारह विद्या ( प्रकार ) सुखकर हैं, अतः एक विद्या को अठारह कर लिया गया, जैसे तीन वेद और उनके (१) शिक्षा, (२) कल्प, (३) व्याकरण, (४) निरुक्त, (५) छंद और ( ६ ) ज्योतिष-ये षडंग । ६४३=१८ । विद्यारसना-रसास्वादन करने में निपुण है, सो 'मधुराम्ललवणकटुकषायतिक्त' इन छ: रसों का गुणन । इस प्रकार नल के पाकशास्त्री होने का संकेत । इन छ: रसों के परस्पर न्यूनाधिक्य से त्रिगुणा करके छ: रसों का भी अष्टादगत्व होता है। सूपशास्त्र के अनुसार अष्टाशत्व है-'दुग्धं दधि नवनीतं घोलवने तक्रमस्तुयुगम् । मध्वारविकहविष्यं विदलान्नं चेति विज्ञेयम् ॥ कन्दो मूलं शाखा पुष्पं पत्रं फलञ्चेति । अष्टादशकं मांस भक्ष्याण्युक्तानि गिरिसुतया । तीन प्रकार के धान्य होते हैं-(१) कणिशवाले व्रीहि आदि, ( २ ) शिवी ( फली ) वाले मग आदि और ( ३ ) घंटकमव चना आदि । भूचर, जलचर और खेचर प्राणियों का तीन प्रकार का मांस । छः रस । कंद, मूल ,फल, नाल, पत्र, पुष्प-छः प्रकार का शाक, सो ३ -३-६ ६=१८ । विद्या नतंकी है, सो वह एक नतंकी भी शिर, हाथ आदि पडंग, ग्रीवा-बाहु आदि छ: प्रत्यंग भौर भ्रूनेत्रादि छः उपांग (६ +६+६=१८)-प्रकार से अष्टादशत्व को प्राप्त होती है । अथवा १४ विद्याएँ + ४ आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धवं और अर्थशास्त्र =१८ । नल को पांसा विशेषज्ञ-'अक्षी' माना गया है। चतुरंग द्यूत, द्विक, त्रिक, चतुष्क, पंचक और चार उड्डीयक ( २+३+४+५+४-१८)