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प्रारम्भिक ( ८४ अथवा ८७ ) 'अर्थो विनैवार्थनयोपसीदन्' इत्यादि तक श्लोक उपजाति हैं, शेष श्लोकों में चार शिखरिणी हैं, दो शार्दूलविक्रीडित है, दो स्रग्धरा हैं, तीन वसन्ततिलका हैं, एक रथोद्धता है और एक मालिनी है । पंचदश में आरम्भिक एक्यासी श्लोक वंशस्थ हैं, बयासीवाँ श्लोक स्रग्धरा है तथा तिरासीवां शिखरिणी । शेष नौ शार्दूलविक्रीडित हैं । षोडश में भी आरम्भिक श्लोक 'पुरी निरीक्षान्यमना' - इत्यादि तक वंशस्थ हैं, पुनः दो पुष्पिताग्रा हैं, शेष पाँच मालिनी हैं। सप्तदश सर्ग अनुष्टुप् छन्दः - प्रधान है, केवल अन्तिम दो इलोकों में पहिला शिखरिणी और दूसरा शार्दूलविक्रीडित है । इसी प्रकार अष्टादश सर्ग रथोद्धता प्रधान है, केवल अन्तिम श्लोक स्रग्धरा है । उन्नीसवें सर्ग के आरम्भिक पचपन श्लोक हरिणी छन्द में हैं, चार मन्दाक्रांता हैं, पांच शार्दूलविक्रीडित हैं, एक श्लोकं 'जलजभिदुरीभावम्' इत्यादि भी हरिणी छन्द में है, इसे प्रक्षिप्त भी माना जाता है । एक पृथ्वी छन्द है, एक मालिनी है और एक स्रग्धरा है । विंश सर्ग भी अनुष्टुप - प्रधान है, अन्तिम श्लोक शार्दूलविक्रीडित है, उससे पूर्व के तीन पुष्पिताग्रा हैं । इक्कीसवाँ सर्ग रथोद्धता - प्रधान है। 'विप्रपाणिषु' इत्यादि तक के श्लोक रथोद्धता छन्द में हैं। इसके अनन्तर इक्कीस श्लोक वसन्ततिलका हैं, शेष में सात पुष्पिताग्रा हैं, तीन स्रग्धरा हैं, ग्यारह शार्दूलविक्रीडित हैं, एक मालिनी है । द्वाविंश ( अन्तिम ) सर्ग उपजाति-प्रधान है । 'अन्तः स लक्ष्मी क्रियते' इत्यादि तक श्लोक उपजाति हैं, पुनः एक रथोद्धता है, तदनन्तर तीन वसन्ततिलका हैं। शेष में आठ शार्दूलविक्रीडित हैं, एक स्रग्धरा है और एक शिखरिणी और एक पुष्पिताग्रा है । प्रत्येक चरण में सर्वलघु सोलह-सोलह वर्णों का भी एक छन्द है, टीकाकारों ने इसे 'सर्वलघु' संज्ञा ही दी है। इसे 'अचलघृति' नाम भी दिया जाता है । अन्त के कवि - प्रशस्ति संबंधी चार श्लोकों में एक शिखरिणी है, दो शार्दूलविक्रीडित और एक हरिणी ।
इस प्रकार श्रीहर्ष ने प्रत्येक सर्ग में एक छन्द को प्रधानता दी है, अन्तिम छन्द भिन्नवृत्तक अवश्य है । किन्तु यह अन्यवृत्तमता केवल अन्तिम श्लोक तक ही सीमित नहीं रह गयी है, कवि ने अन्त के अनेक श्लोकों में