________________
( ४८ ) चित्रण किया है। फिर भी वियोगदशाबो का वर्णन अनेक स्थलों पर स्वाभाविक और सुन्दर है।
संयोग शृंगार का वर्णन तो विवाह के पश्चात् सात-आठ सर्गों में पूर्ण मनोयोग पूर्वक विस्तार से किया ही गया है, वास्तव में आनन्द और उल्लास से ही हर्ष उपजना है, प्रसन्नता आती है । पाठकों के मन में आनन्द-सुधासागर का उद्वेलन शृंगार के संयोग पक्ष से ही अधिक संभव है ? संयोग शृङ्गार की भंगिमा से 'नैषधीय चारित' 'चारु' बन सका है।
'नैषध' का अष्टादश सर्ग नल-दमयन्ती के उल्लास-विलास से परिपूर्ण है। कवि ने निःसंकोच भाव से इस "विलास-वला' का चित्रण किया है। 'दिवानिशभोग' करते दंपती की विविध चेष्टाओं और क्रिया-कलापों का श्रीहर्ष ने हर्षोत्साह के साथ वर्णन - विस्तृत वर्णन किया है। कवि की दृष्टि यह 'तृतीय पुरुषार्थवारिधि' का संतरण पाप नहीं है, आवश्यकता है केवल निर्मल अन्तःकरण की, 'ज्ञानधौ-मनसं' को। ( १८०२)। सुमेरु को लजानेवाले सोधभूधर में यह आमोदोल्लास रचने लगा। अगर और चंदन से वह सुवासित हो रहा था, चंदन की खिड़कियां थीं, जिनसे आता शीतसमीरण सुगन्धि हो जाता था। सौरभ महकाते तेल में सुगंधि दीपों की मन्द आभा सोधगम को 'श्रीयुत बना रही थी। 'मणिकुट्टिम' का फर्श था और प्रसूनशय्या थी। बड़े विस्तार के साथ कवि ने सौध के अलंकरण का विवरण दिया है। वहाँ संभोगपर नल-दमयन्ती के जोड़े को देख कर रति-रतीश भी मोह गये । 'प्रकाशकार (१८२८ की टीका ) लिखते हैं-'भौमीनलो दृष्ट्वा रतिकामो संजातसुरतेच्छो जाती।' उस सोघ-भूधर में उन दोनों की जो कामकेलि दीप्त हुई-वह महाकवियों की भी बुद्धिगोचर न हुई होगी, स्वैरिणी नारियों की शिक्षा भी वैसी न हुई होगी । नै० १८।२९)। कामशास्त्र के अनुरोध से नारी का प्रथम संभोग-साध्वस, लज्जानुभावपूर्ण संभोग-क्रम रति-रुचि और संकोच, 'कुसुमशस्त्र-शास्त्रवित्' नल द्वारा दमयन्ती को संनिधि में लाना, कपोल-चुम्बन से पूर्व ललाट-चुम्बन, स्तनस्पर्श, रशनाकलापमोचनार्थ बड़े प्रिय के हाथ का प्रतिरोध, धीरे-धीरे लज्जात्याग और प्रथम संभोग का अनुभव कविने बड़ी तटस्थ दृष्टि से किया है। आनन्द-उल्लास के विविध अनुयोगों के साथ रात बिताते वे दोनों थक कर परस्पर ऊरु-जोड़े, अधर-मिलाये, रतिकेलि