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जर्मन मनीषी गेटे के अनुसार महाकाव्य माटक के अनुरूप सुसंगठित और विकसित होता है जहाँ तक युग-चित्रण का प्रश्न है, नाटक में जहाँ वर्तमान जीवन जगत् का चित्रण प्रधान होता है, वहाँ महाकाव्य में अजीत का चित्रण | कल्पना और विचारों का स्वच्छंद प्रकाशन महाकाव्य सम्भव है । अपने ग्रन्थ 'पोइटिक' में 'वैकरने जल' ने काव्य के विकास पर दृष्टि डालते हुए महाकाव्य दो प्रकार का माना है - ( १ ) वर्णनात्मक, (२) प्रगीतात्मक |
हींगेल के अनुसार एपिक जीवन का एक महत्त्वपूर्ण विधान है, उसकी कथावस्तु विस्तृत ही नहीं, घटनाएँ भी महत्त्वपूर्ण हों । ऐतिहासिकता के समावेश से काव्य महान् बनता है। महाकाव्य का नायक सम्पूर्ण मानव, सार्वभोम गुणी, इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति होना चाहिए, जिसका चरित्र क्रमशः प्रकाशित होना चाहिए । देवी घटनाओं का चित्रण स्वाभाविक रूप में किया जाना उचित है । राष्ट्रीयता अथवा क्षेत्रीयता की अपेक्षा 'एपिक' में सार्वभौमिकता पर अधिक ध्यान रखना चाहिए। कुछ वीरगाथाओं को जोड़ देना ही महाकाव्य नहीं हैं, उनका सुसंगठित, क्रमिक विकास अपेक्षित होता है ।
महाकाव्य की पाश्चात्य अवधारणा के अनुसार उसमें (१) कथावस्तु, (२) चरित्रचित्रण, ( ३ ) वर्णन, ( ४ ) शैली और ( ५ ) उद्देश्य – इन पाँच अंगों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए ।
(१) कथानक ऐतिहासिक और व्यापक होना चाहिए, महत्त्वपूर्ण घटनाओं से सुसंगठित, यों कुछ काल्पनिक घटनाओं का समावेश भी हो सकता है । उसमें जीवन के विविध पक्षों को उजागर करने की क्षमता होनी चाहिए ।
( २ ) महाकाव्य अन्य पात्रों की अपेक्षा नायक के चरित्रवित्रण पर ध्यान अधिक आवश्यक है । भारतीय परम्परा के अनुसार वह देव अथवा उच्चवशीय भले ही न हो, पर उच्च गुणों का समावेश उसमें अवश्य होना चाहिए । कुछ आचार्यों ने सम्राट्, महापुरुष और प्रतिष्ठित परिवार के व्यक्ति को ही महाकाव्य की नायकता में माना है । यह प्रायः सभी ने माना है कि वह प्रशंसनीय कार्य करने वाला हो ।