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जा सकता है-'पद्यं प्रायः संस्कृतप्राकृतापभ्रंशग्राम्य भाषानिबद्धभिन्नान्त्यवृत्तसर्गाश्वास-सन्ध्यवस्कन्धबन्धं सासन्धिशब्दार्थवैचित्र्योपेतं महाकाव्यम् ।।
अग्निपुराण ( ३३७।२४-३४ ) में यही विस्तार से कहा गया है, जिसमें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि यद्यपि महाकाव्य में वाग्वदग्ध्य की प्रधानता रहती है, पर उसका जीवित रस ही है-'वाग्वदग्ध्यप्रघानेऽपि रस एवात्रजीनम्' । अग्निपुराण के अनुसार वह समानवृत्तिनियूंढ और कैशिकीवृत्ति से कोमल होना चाहिए।
पाश्चात्य साहित्य में महाकाव्य की धारणा पर 'एपिक' शब्द का प्रयोग किया जाता है। यूनानी मनीषी अरस्तू के अनुसार कथावस्तु की संरचना, चरित्रचित्रण, भाषा छंद का सौष्ठव, और उदात्त विचार 'एपिक' के आवश्यक तत्त्व हैं। कथा छन्दोवद्ध, विस्तृत और चरित्रप्रधान होनी चाहिए और वह पूर्ण होनी चाहिए, जिसके आरम्भ, मध्य और अंत सुगठित हों। चरित्रचित्रण यथार्थ के साथ-साथ उच्च और विस्मयपूर्ण घटनाओं से पूर्ण हो, जिससे शाश्वत और महान् सत्य का उदघाटन हो सके।
सोलहवीं शती में इस सम्बन्ध में इटली में विचार हुआ और 'एपिक'सम्बन्धी धारणाएँ बनी, उनके अनुसार 'विडा' ( Vida ) की दृष्टि में महाकाव्य कला का सर्वोत्कृष्ट रूप है। 'होरेस' को मान्यता देते हुए 'डैनियेलो' ने महाकाव्य को राजाओं अथवा उच्चचरित्र-पुरुषों के जीवन की अनुकृति माना है 'ट्रिसिनो' ने वस्तु-संघटना पर विशेष बल दिया है। विशद रूप में विचार करते हुए 'जिराल्डी शिंटो' ने 'एपिक पोइट्री' को प्रख्यात चरितों का अनुकरण माना और उसके तीन भेद किये-(१) व्यक्ति के एक चरित का अनुकरण, (२) व्यक्ति के अनेक चरितों का अनुकरण और (३) अनेक व्यक्तिओं के अनेक चरितों का अनुकरण । 'कैसेलेवेत्रो' ने महाकाव्य के दो भेद किये--(१) चरित-महाकाव्य और (२) काल्पनिक-महाकाव्य । 'टा रक्वैटो टैसो' ने महाकाव्य के संगठन को विशेष महत्त्वपूर्ण माना और नायक का उदात्त गुणों से युक्त होना आवश्यक बताया। 'एबरक्राम्बी' और 'सी० एम० बावरा' ने महाकाव्य दो प्रकार के माने-(१) साहित्यिक, जिसमें सत्य का विवेचन और कलात्मक आनंद की सृष्टि पर बल होता है और ( २ ) ऐतिहासिक, जिसमें शूर-वीरों के आदर्श की प्रधानता होती है ।